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________________ 130] [जैन विद्या और विज्ञान डार्विन के क्रम विकासवाद की जैन दर्शन से विस्तार में समीक्षा करते हुए महाप्रज्ञ जी लिखते हैं कि डार्विन का सिद्धान्त चार मान्यताओं पर आधारित है - 1. पितृ नियम 2. परिवर्तन का नियम 3. अधिक उत्पत्ति का नियम 4. योग्य-विजय इसमें सत्यांश है। जैसे एक सन्तति में स्वतः बुद्धिगम्य कारणों के बिना भी परिवर्तन होता है। उस पर माता-पिता का भी प्रभाव पड़ता है। जीवन संग्राम में योग्यतम ही विजयी होता है किन्त परिवर्तन की भी एक सीमा हैं। वह समान जातीय होता है, विजातीय नहीं। डार्विन के सिद्धान्त को नकारते हुए उन्होंने पशु-पक्षी आदि से मनुष्य जाति की उत्पत्ति नहीं मानी है। गर्भज प्राणियों की निश्चित मर्यादा है कि सजातीय से सजातीय उत्पन्न होता है। (vi) आनुवंशिकता विकासवाद के बाद विज्ञान जगत में - 'प्लूतसञचार' वाद को मान्य किया गया जिसका अर्थ है कि एक जाति से दूसरी उपजाति का जन्म आकस्मिक होता है। प्रिमरोज पेड़ का थोड़ा सा चारा हालैण्ड से लाया जाकर अन्य देशों की मिट्टी में लगाया गया। इससे अकस्मात् दो नई श्रेणियों का उदय हुआ। इसी प्रकार भेड़ों के झुण्ड में एक नई जाति उत्पन्न हो गई। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार बाहरी स्थितियों का प्राणियों पर प्रभाव होता है किन्तु उसकी आनुवंशिकता में वे परिवर्तन नहीं ला सकती। आनुवंशिकता के क्षेत्र में 'जेनेटिक्स का विज्ञान' आधुनिकतम है। जिस पर खोज विकसित हो रही है। विकासवाद की वैज्ञानिक धारणा पूर्ण नहीं है क्योंकि विकास के साथ शारीरिक परिवर्तन का हास भी देखा गया है। उदाहरणतः 'टरपन जाति के घोड़े जो प्रागेतिहासिक काल में होते थे जिनकी नस्ल लुप्त हो गई थी, आज संक्रमण पद्धति से पुनः इनकी नस्ल पैदा कर ली गई है। इसमें जाना जाता है कि शरीर, संहनन, संस्थान और रंग का परिवर्तन होता है। उससे एक जाति के अनेक रूप बन जाते हैं, किन्तु मूलभूत जाति नहीं बदलती। आचार्य महाप्रज्ञ ने जैन दृष्टि से आनुवंशिकता की समानता के चार कारण बतलाए हैं।
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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