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द्रव्य मीमांसा और दर्शन ]
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में ही उनमें कीड़े, मकोड़े या क्षुद्राकार बीजाणु दिखाई देने लगते हैं। इससे यह सिद्ध किया गया कि बाहर की हवा में रहकर ही बीजाण या प्राणी का अण्डा इस पदार्थ में जाकर उपस्थित
होते हैं। (ब) इसी प्रकार मिलर ने भी डा. यूरे के अनुसार जीवन की उत्पति
के समय जो परिस्थितियां थी, वे ही उत्पन्न कर दी। एक सप्ताह के बाद उसने अपने रासायनिक मिश्रण की परीक्षा की। उसमें तीन प्रकार के प्रोटीन मिले परन्तु एक भी प्रोटीन जीवित नहीं
मिला। निष्कर्ष
आचार्य महाप्रज्ञ ने वैज्ञानिकों के इन प्रयोगों को अधूरा माना है जब तक भौतिकता चरम बिन्दु पर पहुँच कर चेतना के रूप में परिवर्तित न हो जाय। वैज्ञानिकों द्वारा असंख्य सेल्स (Cells) - जीव कोषों के द्वारा प्राणी शरीर और चेतन का निर्माण होना बतलाते हैं वह भी जैन दृष्टि से सही नही हैं क्योंकि आत्मा असंख्य प्रदेशों का समुदाय है, वह असंख्य जीव कोषों का 'पिण्ड नहीं हैं। आहार-पर्याप्ति
आहार और जीव के संबंध में हम जानते हैं कि - प्राणी सजीव और अजीव दोनों तरह का आहार लेते हैं किन्तु उसे लेने के बाद वह सब अजीव हो जाता है। अजीव पदार्थो का जीव स्वरूप में कैसे परिवर्तित करते हैं, यह आज भी विज्ञान के लिए रहस्य है। वैज्ञानिकों के अनुसार वृक्ष निर्जीव पदार्थों से बना, आहार लेते हैं। वह उसमें पहुँच कर सजीव कोष्ठों का रूपधारण कर लेता है। वे निर्जीव पदार्थ सजीव बन गए इसका श्रेय क्लोरोफिल को है। वे इस रहस्यमय पद्वति को नहीं जान सके हैं, जिसके द्वारा 'क्लोरोफिल निर्जीव को सजीव में परिवर्तित कर देता है। जैन दृष्टि के अनुसार निर्जीव आहार को सजीव में परिणित करने वाली शक्ति आहार पर्याप्ति है। वह जीवन शक्ति की आधार शिला होती है और उसी के सहकार से शरीर आदि का निर्माण होता है। (iv) वनस्पति का चैतन्य
जैन दृष्टि से प्राणी दो प्रकार के हैं - चर और अचर । चर प्राणी प्रत्यक्ष , होने के कारण, उसमें जीवन का संदेह नहीं होता लेकिन अचर प्राणीयों में
प्रत्यक्ष गति न होने के कारण, उन्हे स्थावर कहा है। वे पांच प्रकार के है