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[ जैन विद्या और विज्ञान.
(ब) दार्शनिक मत - उपर्युक्त प्रयोग के सम्बन्ध में आचार्य महाप्रज्ञ
ने टिप्पणी करते हुए लिखा है कि यहाँ सिर्फ इतना समझना ही पर्याप्त होगा कि दिमाग चेतना का उत्पादक नहीं, किन्तु वह मानस प्रवृत्तियों के उपयोग का साधन है। इस विषय में इतना जान लेना पर्याप्त है कि बहुत सारे ऐसे भी प्राणी हैं जिनके मस्तिष्क होता ही नहीं। वनस्पति भी आत्मा है पर उसके दिमाग नहीं होता। उसमें शोक, हर्ष, भय, आदि प्रवृत्तियां हैं। जैन दृष्टि से चेतना का सामान्य लक्षण स्वानुभव है। आज के वैज्ञानिक अगर चेतना का आनुमानिक एवं स्वसंवेदनात्मक अन्वेषण करे तो
इस गुत्थी को अधिक सरलता से सुलझा सकते हैं। . . आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार हमारा पूरा शरीर चुम्बकीय क्षेत्र है जो पांच इंद्रियों के केन्द्रों में अधिक चुम्बकीय बन सकता है। जब वह पूरा चुम्बकीय बन जाता है तब अतीन्द्रिय चेतना प्राप्त होती है - अवधि ज्ञान आदि ज्ञान प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार मस्तिष्कीय प्रक्रिया को समझाते हुए कहते हैं कि. मस्तिष्क का संबंध है विद्युत के आवेशों से और रसायन से। रसायन बनते हैं आहार से। जैसा आहार वैसा रसायन, जैसा रसायन वैसी मस्तिष्कीय क्रिया। यह एक पूरा चक्र है। अतः अध्यात्म केवल धर्म का ही विज्ञान नहीं है वह प्रकृति की सूक्ष्मतम गुत्थियों को सुलझाने वाला विज्ञान
जैन दृष्टि को स्पष्ट करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं कि मन और मस्तिष्क की भांति इन्द्रिय भी आत्मा नहीं है। आंख, कान आदि नष्ट होने पर भी उनके द्वारा विज्ञान विषय की स्मृति रहती है इसका कारण यही है कि आत्मा देह और इन्द्रिय से भिन्न है। यदि ऐसा न होता तो इन्द्रिय के नष्ट होने पर उनके द्वारा किया हुआ ज्ञान भी चला जाता। इससे प्रमाणित होता है कि ज्ञान का अधिष्ठान इन्द्रिय से भिन्न है। (iii) आहार और जीव - विज्ञान के प्रयोग (अ) लुई पास्चर ने निम्न परीक्षण किया, एक कांच के गोले में उन्होंने
कुछ विशुद्ध पदार्थ रख दिया और उसके बाद धीरे-धीरे उसके भीतर से समस्त हवा निकाल दी। इस अवस्था में रखे जाने पर . देखा गया कि चाहे जितने दिन भी रखा जाये, उसके भीतर इस प्रकार की अवस्था में किसी प्रकार की जीव-सत्ता प्रकट नहीं होती, उसी पदार्थ को बाहर निकाल कर रख देने पर कुछ दिनों