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द्रव्य मीमांसा और दर्शन]
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खींचे हुए होते हैं, उसी प्रकार मस्तिष्क में अतीत के चित्र प्रतिबिम्बित रहते हैं। जब उन्हें तदनुरूप सामग्री द्वारा नई प्रेरणा मिलती है तब वे जागृत हो जाते हैं, या निम्न स्तर से ऊपरी स्तर में आ जाते हैं, इसी का नाम स्मृति है। इसके लिए भौतिक
तत्त्वों में पृथक अन्वयी आत्मा मानने की कोई आवश्यकता नहीं। (ब) दार्शनिक मत - आचार्य महाप्रज्ञ ने इस वैज्ञानिक मान्यता पर
टिप्पणी करते हुए लिखा है कि वैज्ञानिक, मन के विषय में ही नहीं, मस्तिष्क के बारे में भी अभी संदिग्ध है। मस्तिष्क को अतीत के प्रतिबिम्बों का वाहक और स्मृति का साधन मानकर स्वतन्त्र चेतना का लोप नहीं किया जा सकता। मस्तिष्क फोटो के नेगेटिव प्लेट की भांति वर्तमान के चित्रों को खींच सकता है, सुरक्षित रख सकता है, इस कल्पना के आधार पर उसे स्मृति का साधन भले ही माना जाए किन्तु उस स्थिति में वह भविष्य की कल्पना नहीं कर सकता। उसमें केवल घटनाएं अंकित हो सकती हैं, पर उनके पीछे छिपे हुए कारण स्वतन्त्र चेतनात्मक व्यक्ति का अस्तित्व माने बिना नहीं जाने जा सकते। प्लेट की चित्रावली में नियमन होता है। प्रतिबिम्बित चित्र के अतिरिक्त
उसमें और कुछ भी नहीं होता। यह नियमन मानव मन पर लागू .. नहीं होता। वह अतीत की धारणाओं के आधार पर बड़े-बड़े निष्कर्ष निकालता है, भविष्य का मार्ग निर्णीत करता है। इसलिए
इस दृष्टान्त की भी मानस क्रिया में संगति नहीं होती। मस्तिष्क और आत्मा का वैज्ञानिक मत और दार्शनिक मत इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं कि विज्ञान मस्तिष्क को आत्मा मानता है लेकिन दर्शन पक्ष इसे स्वीकार नहीं करता। (ii) इन्द्रिय और आत्मा (अ) वैज्ञानिक मत - रूस के जीव विज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान
पावलोक ने एक कुत्ते का दिमाग निकाल लिया। उससे वह शून्यवत हो गया। उसकी चेष्टाएं स्तब्ध हो गई। वह अपने मालिक और खाद्य तक को नहीं पहचान पाता। इस प्रयोग पर उन्होंने यह बताया कि दिमाग ही चेतना है। उसके निकल जाने पर प्राणी में कुछ भी चैतन्य नहीं रहता।