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द्रव्य मीमांसा और दर्शन ]
(vi) प्रकाश, शब्द और रंग
प्रकाश, शब्द और रंग ये तीन हैं। हम प्रकाश को अलग मानते हैं, शब्द को अलग मानते हैं और रंग को अलग मानते हैं। किंतु कोई वैज्ञानिक इनको अलग नहीं मानता। शब्द अर्थात् ध्वनि और रंग अर्थात् वर्ण । ये दोनों प्रकाश के ही प्रकम्पन है । भिन्न-भिन्न आवृत्तियों (फ्रीक्वेंसी) पर ये प्रकम्पन बनते हैं और प्रकाश, ध्वनि या वर्ण के रूप में गृहीत होते हैं। वर्ण (रंग) प्रकाश का उनपचासवां प्रकम्पन है । ध्वनि भी प्रकाश की ही अमुक फ्रीक्वेंसी है, प्रकम्पन है। ध्वनि और रंग दो नहीं हैं। रंग को सुना जा सकता है, ध्वनि को देखा जा सकता है। रंग को सुनने का माध्यम है " ओरोट्राल" मशीन । आवृत्तियों का अंतर करने पर रंग सुनाई देने लगता है और ध्वनि दिखाई देने लगती है। भिन्न-भिन्न लगने वाली वस्तुएं एक बन जाती हैं। हमारी इन्द्रिय भिन्न-भिन्न प्रकार के विषयों को ग्रहण करती है। आंख देखती है, कान सुनता है, नाक सूंघती है, जीभ चखती है और त्वचा छूती है । यह बहुत स्थूल विभाजन है । यदि सूक्ष्म में जाए तो आंख का काम केवल देखना ही नहीं है, वह सुन भी सकती है, चख भी सकती है और सूंघ भी सकती है। जीभ का काम केवल चखना ही नहीं है, वह सुन भी सकती है और अन्य इन्द्रियों का कार्य भी कर सकती है।
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आयुर्वेद का दृष्टिकोण
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आयुर्वेद के महान आचार्य कश्यप कौमारभृत्य चिकित्सा के क्षेत्र में प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। उन्होंने एक बात लिखी है - जैसे हमारे हाथ दो होते हैं वैसे ही हमारी जीभ भी दो होती है। वह दो भागों में बंटी होती है। जीभ के एक भाग का काम है चखना और दूसरे भाग का काम है सुनना । उनका कहना है कान सुनता नहीं है। वह तो केवल ध्वनि को ग्रहण करता है । वह तो केवल रिसेप्टिव है । ग्रहण का माध्यम मात्र है । वह ध्वनि को ग्रहण करता है और जीभ तक पहुंचा देता है। वास्तव में जीभ ही सुनती है। उन्होंने अपने मत के समर्थन में एक महत्त्वपूर्ण तर्क दिया । एक आदमी बहरा है, यह अनिवार्य नहीं है कि वह गूंगा भी हो। किंतु जो गूंगा है, उसका बहरा होना अनिवार्य है। जो जीभ से बोल नहीं सकता, वह गूंगा होता है और जो सुन नहीं सकता, वह बहरा होता है। जो बहरा है वह बोल भी सकता है, किंतु जो गूंगा है, वह बोल नहीं सकता तो सुन भी नहीं सकता। जिसकी जीभ विकृत है, जो बोल नहीं सकता, गूंगा है, वह निश्चित ही बहरा होगा ।
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