SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 118] [जैन विद्या और विज्ञान अगर सूक्ष्म परमाणु का वर्ण संबंधी गुण, एक ही गुणांश हो और वह अनन्त गुण में परिवर्तित होता हो तो परमाणु का कोई दूसरा गुण-धर्म (गंध, रस या स्पर्श) शून्य की ओर परिवर्तित होना चाहिए। इसी प्रकार एक गुणांश रस वाला परमाणु अगर अनन्त गुणांश रस वाला बनता है तो उसका कोई दूसरा धर्म अर्थात् वर्ण, स्पर्श, गंध को शून्य गुण में परिवर्तित होना होगा। अतः इसका अभिप्राय यह हुआ कि वर्ण से वर्णान्तर ही हो, यह आवश्यक नहीं है अपितु गंध, रस और स्पर्श में भी गुणों का आदान-प्रदान परस्पर में संभव होना चाहिए। इन्द्रिय ज्ञान और सीमाएं हमें ज्ञात है कि सभी इन्द्रियां अपने अपने विषयों को ग्रहण करती हुई, अन्य इन्द्रियों के विषय को भी ग्रहण कर सकती हैं। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार प्रकृति में ऐसी कोई व्यवस्था है कि मनुष्य का ज्ञान तो बहुत विशाल है परंतु इन्द्रियां इस ज्ञान में से थोड़े से ज्ञान को स्वीकार करती है। इन्द्रियज्ञान में देखने, सुनने और सूंघने की सीमित शक्ति है, सीमा से आबद्ध है। प्रत्येक इन्द्रिय ने व्यवस्था कर ली है कि वह निश्चित आवृत्ति (frequency) पर ही अपना कार्य करेगी। हम जानते हैं कि आंख बहुत निकट की वस्तु को नहीं देख पाती तथा बहुत दूर की वस्तु भी स्पष्ट नहीं देख पाती। आंख एक निश्चित दायरे (range) में ही कार्य करती है। इसी प्रकार श्रोत इन्द्रिय की सुनने की शक्ति भी सीमित है। इस संबंध में वैज्ञानिक धारणा यह है कि वस्तु (विषय) की आवृति संख्या के आधार से ही इन्द्रिय विषय को ग्रहण करती है। जैसे मनुष्य के कान द्वारा 20 से 20, 000 आवृति संख्या वाले स्वरों को सुना जा सकता है। इन्हें स्वरक (Tones) कहा जाता है। 20 से कम और 20, 000 से अधिक आवृति वाले संख्या स्वर कान द्वारा सुनाई नहीं पड़ते। इन्हे क्रमशः अधः स्वरक (Under Tones) और अधिक स्वरक (Over Tones) कहा जाता है। इसी प्रकार सभी इन्द्रियों की शक्ति, न्यूनतम और अधिकतम आवृति संख्या (तरंग गुण) के बीच विषय ग्रहण करने की होती है। अतः विषय ग्रहण के लिए पदार्थ की आवृति संख्या महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिकों ने इन्द्रियों और उनके विषय ग्रहण के संबंध में नई जानकारी प्रदान की है। आचार्य महाप्रज्ञ इसी संबंध में उल्लेख करते हैं कि प्रकाश, शब्द और रंग के स्वरूप पर विज्ञान की दृष्टि से विचार करना चाहिए।
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy