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________________ 108 ] [ जैन विद्या और विज्ञान अनुदिशा - तीसरा आयाम उपर्युक्त संबंध में इन्हीं दिशाओं के वर्णन में उल्लेख हुआ है कि महादिशाओं के साथ अनुदिशा भी होती है जो केवल एक देशात्मक होती है। हम इस अनुदिशा का अगर घन की ज्यामिती के माध्यम से अध्ययन करें तो नए परिणाम मिलते हैं। हम आठ रुचक प्रदेशों का घन. बनाएं तो उसके छह चौरस धरातल बनेंगे। इसके अतिरिक्त घन के प्रत्येक बिंदु पर तीन लम्बवत आयाम बनते हैं। घन की इस ज्यामिती में प्रत्येक चौरस धरातल के दो आयाम दूसरे चौरस धरातल के एक आयाम से जुड़ जाते हैं। ऐसे में घन के प्रत्येक बिंदु पर तीसरा आयाम एक देशीय ही बनेगा लेकिन यह तीनों आयाम समान होंगे। इस समानता के आधार पर कहीं-कहीं विपरीत. दिशा को विदिशा कह दिया गया है इसे हमें समझना होगा.। हमने घन के चित्र में देखा है कि घन के प्रत्येक बिंदु पर तीन लम्बवत आयाम बनते हैं। उनमें दो आयाम प्रत्येक दिशा में दिखाई देते हैं क्योंकि हम सदैव चपटे धरातल से ही चित्र देखने को आदि हैं। इन दो आयामों के साथ तीसरा आयाम विपरीत दिशा में जाता हुआ दिखाई देता है। यह अनुदिशा का आयाम है। अतः अनुदिशा-विपरीत दिशा है लेकिन विदिशा नहीं। विदिशा वह दिशा है जो दो महादिशाओं के मध्य होती है। यह केवल एक प्रदेशी है अतः उपर्युक्त में वर्णित विपरीत दिशा को हम विदिशा नहीं कह सकते जो एक देशीय है। अतः हम निःसंदेह इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि अनुदिशा ही आकाश का तीसरा आयाम है। ऊर्ध्व और अधो दिशा के स्थिर आयाम ____ हम इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद उस आयाम पर फिर चिन्तन करें जो ऊर्ध्व और अधो दिशाओं से बनता है। धन में आठ बिन्दु होते हैं - फिलहाल हम उन्हें रुचक प्रदेश कह रहे हैं। घन को किसी भी समतल चौरस से देखें उसके चार बिन्दु सामने और चार पीछे की ओर होंगे। इन बिन्दुओं से निर्मित दिशा चार प्रदेश की होगी और यह संख्या स्थाई रहेगी, जो त्रिआयामी आकाश के प्रत्येक आयाम के साथ रहेंगी। इस स्थिर आयाम का नाम जैन प्राच्य साहित्य में स्पष्ट रूप से नहीं है। इसे अगर हम काल की उस परिभाषा के संदर्भ में देखें जहाँ कहा गया है कि काल का तिर्यक-प्रचय (तिरछा फैलाव) नहीं होता और काल की पूर्व एवं अपर पर्याय में ऊर्ध्व प्रचय होता है। यह काल की अवधारणा महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है क्योंकि आकाश की दिशाओं के प्रकरण में जो ऊर्ध्व-अधो आयाम की चर्चा हुई है, वह काल का ऊर्ध्व-अधो प्रचय ही हो सकता है। इस संभावना के अतिरिक्त अन्य कोई
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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