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[जैन विद्या और विज्ञान
समय शून्य हो जाता है। इस जगत में कुछ ऐसा है जो हमें यह सोचने को बाध्य करता है कि सूक्ष्म जगत का व्यवहार समझना इतना सरल नहीं है। सर्वज्ञ के लिए जहां काल ठहरा हुआ सा है वहां व्यवहार में साधारण व्यक्ति के लिए अतीत, वर्तमान और भविष्य की वर्तना हो रही है। पाठकगण जैन गणित में वर्णित शून्य और अनन्त का परस्पर संबंध का अध्ययन कर, काल की अवधारणा को समझने का प्रयत्न करेंगे। आकाश-काल-धर्म-अधर्म . आइंस्टीन के सापेक्षवाद के सिद्धान्त के बाद प्रत्येक घटना पर विमर्श आकाश-काल के संयुक्त रूप से किया जाता है। जैन दृष्टि पर इस संबंध में विचार करें तो हमें केवल आकाश-काल की युति को मानने में कठिनाई आएगी क्योंकि आकाश की भांति ही धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के द्रव्य इसी आकाश में, प्रत्येक आकाश प्रदेश के साथ अवस्थित हैं। ऐसे में हमें आकाशकाल की युति की भांति ही दो और युतियां स्वीकार करनी होगी। वे हैं - धर्म-काल की युति और अधर्म-काल की युति। इसका कारण यह है कि पुद्गल और जीव की गति और स्थिति में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य सहायक है तथा ये द्रव्य लोकाकाश के आकाश के समान ही त्रिआयामी क्षेत्र में व्याप्त है। आकाश, धर्म और अधर्म की क्षेत्रीय समतुल्यता देखते हुए गणितीय समीकरणों में किसी ब्रह्माण्ड स्थिरांक (Cosmological Constant) का प्रयोग होना सही प्रतीत होता है। आइंस्टीन ने ब्रह्माण्ड स्थिरांक का प्रयोग किया था जो बाद में उपयोगी प्रतीत नहीं हुआ। ऐसा संभवतः इसलिए हुआ है कि विज्ञान की दृष्टि में आकाश काल वास्तविक द्रव्य नहीं है।
जैन दृष्टि से काल को द्रव्य न मानने का अर्थात् पंचास्तिकाय से अलग रखने का यह ठोस कारण रहा होगा कि उसकी युति काल के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों से भी स्वतन्त्र रूप से होती है। जैनों की यह दृष्टि रही होगी कि अगर आकाश-काल की युति मानी जाए तो धर्म-काल तथा अधर्म-काल की युति को भी स्वीकार करना होगा। धर्म, अधर्म और आकाश तीनों ही द्रव्य रूप से लोक में व्याप्त हैं, समान प्रदेश वाले हैं अतः काल की आकाश-धर्म-अधर्म की युति एक साथ किसी ब्रह्माण्ड स्थिरांक के द्वारा प्रदर्शित की जा सकती है। यहां इस चर्चा को इसलिए महत्त्व दिया गया है कि आकाश जिस प्रकार अवगाहन देता है, धर्म और अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल को गति और स्थिति देने में सहायक हैं अतः काल के साथ उनका संयुक्त होना आकाश से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।