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________________ 104] [ जैन विद्या और विज्ञान केवलज्ञान का अभिप्राय उपर्युक्त तथ्य को आगमिक दृष्टि से प्रतिपादित करते हुए वे कहते हैं कि यदि हमारी चेतना देश और काल की सीमा को तोड़कर अनन्त में चली जाए, विराट हो जाए तो भूतकाल समाप्त हो जाएगा, भविष्य काल समाप्त हो जाएगा, केवल वर्तमान काल रह जायेगा। यह स्पष्ट है कि केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) के लिए न भूतकाल होता है और न भविष्य काल होता है। जब भूतं और भविष्य नहीं रहते तो वर्तमान भी नहीं रहता। ये तीनों शब्द समाप्त हो जाते हैं। केवल घटना रहती है। जैन तत्त्व ज्ञान के एक महत्त्वपूर्ण परिभाषिक शब्द 'केवलज्ञान' (सर्वज्ञता) को काल दृष्टि से जिस सरलता से आचार्य महाप्रज्ञ ने उपर्युक्त व्याख्या की है, यह उनकी प्रज्ञा की विशेषता है। .. सर्वज्ञता जैन परम्परा में सर्वज्ञता का सिद्धान्त मान्य रहा है। सर्वज्ञ को केवलज्ञानी कहा जाता है। जैन आगम साहित्य में केवलज्ञानी के ज्ञान को अनन्त कहा है, सम्पूर्ण कहा है, शुद्ध कहा है, अतीन्द्रिय कहा है अर्थात् जो इन्द्रिगत् ज्ञान न होकर आत्मगत ज्ञान है। ऐसा माना जाता रहा है कि सर्वज्ञ समस्त लोक और अलोक को जानता है। वह सब द्रव्यों और सब पर्यायों को जानता है। यह प्रश्न सदैव बना रहा है कि केवलज्ञानी (सर्वत्र) एक साथ अनेक विषयों को कैसे ग्रहण करता होगा क्योंकि द्रव्य के सभी पर्यायों को जानने का अभिप्राय यह होगा कि उसके भूत और भविष्य को भी जानता होगा क्योंकि सर्वज्ञ को त्रैकालिक कहा गया है। त्रैकालिक को आधुनिक परिभाषा में यह कहा जाता है कि जो द्रव्य शाश्वत् है अर्थात् तीनों कालों में रहते हैं, सर्वज्ञ उन्हें जानता है लेकिन आचार्य महाप्रज्ञ ने उपर्युक्त समस्या को गहराई से पकड़ा है और इसकी नई व्याख्या करते हुए कहा है कि एक क्षण में अनेक विषयों का ग्रहण नहीं होता किन्तु ग्रहण का काल इतना सूक्ष्म होता है कि वहाँ काल का क्रम नहीं निकाला जा सकता। उसे केवल घटना मानना चाहिए। गणितीय दृष्टि से अनन्त और शून्य का अति गहरा सम्बन्ध है। कोई इकाई जब अनन्त होने लगती है तो उससे जुड़ी दूसरी इकाई स्वतः शून्य हो जाती है। सर्वज्ञ का ज्ञान अनन्त होता है, इस अनन्त के कारण समय की इकाई शून्य हो जाती है, अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान का अंतर नहीं रहता। आचार्य महाप्रज्ञ ने केवलज्ञान की काल-सापेक्ष जो अवधारणा प्रस्तुत की है यह उनका नया चिंतन है। यह चिंतन वैज्ञानिक
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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