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द्रव्य मीमांसा और दर्शन ]
चार दिशाओं में माना । वस्तु का रेखा गणित में प्रसार आकाश है और उसका क्रमानुगत प्रसार काल । काल और आकाश दो भिन्न तथ्य नहीं है । इस दृष्टि से दिगम्बर परम्परा की यह मान्यता की आकाश के एक - एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु अवस्थित है, विज्ञान के निकट जान पड़ती है आइंस्टीन की आकाश-काल की धारणा ने भौतिक जगत में एक क्रांति पैदा की है। यह अब निश्चित मत बन गया है कि किसी भी घटना को यथार्थ रूप से जानने के लिए आकाश और काल दोनों के सापेक्ष जानना आवश्यक है। उपर्युक्त विवेचन से हमें आचार्य महाप्रज्ञ इस कथन को मान लेना चाहिए कि काल के संबंध में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा की मान्यताएं एक-दूसरे की पूरक है।
सापेक्षता
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आज विज्ञान की यह महत्त्वपूर्ण मान्यता है कि सापेक्षता के बिना किसी घटना की व्याख्या नहीं की जा सकती । वैज्ञानिक आइंस्टीन का देश-काल की सापेक्षता का सिद्धान्त प्रत्येक घटना की व्याख्या करता है। इस संबंध में आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं कि हमने काल को तीन भागों में विभाजित किया भूतकाल, भविष्य काल और वर्तमान काल । काल कभी विभक्त होता नहीं । आज विज्ञान के सहारे अतीत को वर्तमान के रूप में रूपायित किया जा • सकता है, क्योंकि दिग् और काल को सापेक्ष मानने वाले वैज्ञानिकों के लिए • कोई भी घटना अतीत की नहीं रही है।
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आइंस्टीन के अनुसार देश और काल मिलकर एक तत्त्व है जो स्थैतिक (Static) है। इस स्थैतिक देश काल के पटल पर कुछ नया घटित नहीं होता, अपितु कुछ पहले से ही चित्र लिखित हैं। जब हम उसे देखते हैं तो वह • केवल अभिव्यक्त होता है। आकाश में सूक्ष्म पदार्थ द्वारा निर्मित अनेक और विभिन्न प्रकार के तंत्र ( Systems) भरे पड़े हैं। ये तंत्र अतीत की घटनाओं को समेटे हुए हैं। अतीत की सभी घटनाएं, विनष्ट नहीं होती और उन्हें ग्रहण किया जा सकता है।
आचार्य महाप्रज्ञ ने इस सम्बन्ध में कहा है कि हमारा मन और वाणी पौद्गलिक है। हम पुद्गलों के माध्यम से चिंतन करते हैं या बोलते हैं। ये पुद्गल आकाश में व्याप्त हो जाते हैं। आकाश इन पुद्गलों से ठसाठस भरा है जैसे लोक की समूची व्यवस्था का अखूट भंडार हो । निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि किसी भी व्यक्ति के अतीत और वर्तमान, अभी और यही मिलते
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