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[ जैन विद्या और विज्ञान
काल
जैन तत्त्व- चिन्तन में काल की अवधारणा को लेकर दो मत प्रचलित
हैं ।
(i) दिगम्बर परम्परा में काल को स्वतंत्र द्रव्य कहा है।
(ii) श्वेताम्बर परम्परा ने काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं माना है, औपचारिक द्रव्य माना है तथा उसे जीव और अजीव द्रव्यों की पर्याय मात्र कहा है।
आचार्य महाप्रज्ञ ने इसकी मीमांसा अनेकान्त दृष्टि से करते हुए कहा है कि काल एक स्वतन्त्र द्रव्य भी है और जीव और अजीव का पर्याय भी है। ये दोनों कथन सापेक्ष है, विरोधी नहीं । निश्चय दृष्टि से काल जीव-अजीव की पर्याय है और व्यवहार की दृष्टि से वह द्रव्य है । इसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है । वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व काल के भेद हैं। इन्हीं कारण से द्रव्य माना जाता है ।
जैन दिगम्बर परम्परा में काल का स्वरूप निम्न प्रकार से दर्शाया गया
है ।
(1) काल अणु रूप हैं।
(2) आकाश के एक-एक प्रदेश पर एक- एक कालाणु अवस्थित है।
(3) काल शक्ति और व्यक्ति की अपेक्षा एक प्रदेश वाला है। इसलिए इसमें तिर्यक्- प्रचय (त्रि-आयामी ) नहीं होता ।
• दोनों परम्पराओं में एक समानता है कि वे काल को अस्तिकाय नहीं मानती ।
विज्ञान का मत
आइंस्टीन के अनुसार आकाश और काल कोई स्वतन्त्र तथ्य नहीं है । ये द्रव्य या पदार्थ के धर्म- मात्र हैं। इस दृष्टि से विज्ञान की काल संबंधी मान्यता, श्वेताम्बर परम्परा से मिलती-जुलती है लेकिन यह अपने आप में पूर्ण नहीं है।
आइंस्टीन से पूर्व, किसी भी वस्तु का अस्तित्व पहले तीन दिशाओं लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई में माना जाता था। आइंस्टीन ने वस्तु का अस्तित्व