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द्रव्य मीमांसा और दर्शन ]
का भी कथन हुआ है। हम इन दिशाओं के सम्बन्ध में विचार करने से पूर्व, आचार्य महाप्रज्ञ के विचारों का अध्ययन करेंगे।
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आचार्य महाप्रज्ञ ने दिशाओं के आगमिक स्वरूप के संबंध में लिखा है कि दिशा और अनुदिशा की उत्पत्ति तिर्यक् लोक से होती है। दिशा का प्रारम्भ तिर्यक् लोक की लम्बाई मध्य स्थित आठ रुचक प्रदेशों से होता है जो • कि घन रूप में है। घन के चारों कोनों से, दो-दो प्रदेशों से दिशा का प्रारम्भ होता है और उनमें दो-दो प्रदेशों की वृद्धि होते-होते वे असंख्य प्रदेशात्मक बन जाती है। लोक आश्रयी यह मृदंग के आकार की है और अलोक आश्रयी यह ऊर्ध्व शकटाकार है । अनुदिशा केवल एक देशात्मक होती है। ऊर्ध्व और अधोदिशा का प्रारम्भ चार प्रदेशों से होता है फिर उनमें वृद्धि नहीं होती ।
दिशा के सम्बन्ध में आचारांग नियुक्ति में विशेष विस्तार से वर्णन हुआ है वहां दिशाओं के अतिरिक्त चार विदिशाओं का उल्लेख है जिन्हें एक प्रदेशात्मक मानी है वह अन्त तक एक प्रदेश वाली है और उन्हें वृद्धि रहित कहा है। यह टूटी हुई मोतियों की माला के आकार है। इसी प्रकार ऊर्ध्व और अधो दिशाओं को चार प्रदेशी माना है और वे भी वृद्धि रहित हैं ।
दिशाओं के इस अध्ययन के निम्न निष्कर्ष निकलते हैं।
(i) चार महादिशाएं, उत्तर, पूर्व, पश्चिम और दक्षिण मुख्य दिशाएं हैं जो असंख्य प्रदेशात्मक हैं। उत्तर और दक्षिण तथा पूर्व और पश्चिम दिशाएं संयुक्त रूप से आकाश के दो आयामों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
(ii) रुचक प्रदेशों के ऊपर से ऊर्ध्वमुखी वृद्धि होती है और नीचे के प्रतर से लोक की अधोमुखी वृद्धि होती है। किंतु मूल में चार प्रदेशी हैं और अंत तक चार प्रदेशी रहते हैं अर्थात् इनमें वृद्धि नहीं होती ।
(iii) अनुदिशा, रुचक प्रदेशों से प्रारम्भ होती है।
समस्याएं
उपर्युक्त वर्णन से यह फलित होता है कि
(i) चार महादिशाएं आकार में असंख्य प्रदेशात्मक है लेकिन ऊर्ध्व और अधो दिशाओं का आकार केवल चार प्रदेशों तक ही सीमित है । अतः इन छः दिशाओं से आकाश के तीन समान आयाम नहीं माने जा सकते।