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________________ 100 ] [ जैन विद्या और विज्ञान (ii) ऊर्ध्व और अधो दिशाएं केवल चार प्रदेशी हैं, ऐसे में जीव, पुनर्जन्म के समय इन दिशाओं में कैसे गति कर पाएगा ? क्योंकि जीव असंख्यात प्रदेशी है और उसे गमन करते समय असंख्यात प्रदेशी आकाश की आवश्यकता रहती है। आत्मा, पुद्गल की भांति इतना संकोच नहीं कर सकती कि वह आकाश के एक प्रदेश में समा जाए। यह पुद्गल की विशेषता है कि अनन्त प्रदेशी स्कन्ध, एक आकाश प्रदेश में समा जाता है। (iii) अनुदिशा क्या है ? एक देशात्मक है या एक प्रदेशात्मक है ? आचार्य महाप्रज्ञ ने विदिशा और अनुदिशा को एक ही कहा है। विदिशा केवल एक प्रदेशात्मक है, इस दृष्टि से अनुदिशा भी एक . प्रदेशात्मक मान ली गई है। एक प्रदेशात्मक दिशा से असंख्य प्रदेशी जीव की गति नहीं होती। जबकि आचारांग सूत्र में अनुदिशा से जीव की गति मानी है, इस संभावना के लिए अनुदिशा को एक देशात्मक मानना उचित है। अनुदिशा को आकाश का तीसरा आयाम माना जा सकेगा। (iv) यह जानना भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं कि अलोक में दिशा के स्वरूप को निर्धारित करने का क्या कारण रहा है ? भगवती सूत्र में वर्णन है कि दिशाएं लोक के साथ अलोक में भी चली गई हैं। अलोक में भी दिशाएं हैं तथा उनके आकार हैं। दिशाओं के सम्बन्ध का यह समूचा वर्णन, निश्चित करता है कि जैन दर्शन में दिशाओं का प्रकरण स्वतंत्र रूप से विकसित हुआ है। इसकी समस्याएं भी हैं और समाधान भी हैं। इसी खण्ड के 'काल' प्रकरण में इसका विस्तार से विवरण प्रस्तुत किया गया है।
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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