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[ जैन विद्या और विज्ञान ..
शब्द की पौद्गलिकता
जैन दर्शनं ने शब्द को आकाश का गुण नहीं माना है। इस पर टिप्पणी करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है कि शब्द पौद्गलिक है, वह पुद्गल पदार्थ के संघात और भेद का कार्य है। हमें यह ध्यान में रखना है कि शब्द के पुद्गल अष्टस्पर्शी हैं, चतुष्स्पर्शी नहीं। अर्थात् शब्द के पुद्गल भारहीन नहीं हैं, वे भारसहित हैं। अतः पौद्गलिक शब्द, अमूर्त आकाश का गुण नहीं हो सकता। आकाश का गुण अवगाहन है। वह स्वयं अनालम्ब है, शेष सब द्रव्यों का आलम्बन है। स्वरूप की दृष्टि से सभी द्रव्य स्व-प्रतिष्ठ है किंतु क्षेत्र या आयतन की दृष्टि से वे आकाश प्रतिष्ठ हैं। ... दर्शन और विज्ञान
पाश्चात्य दार्शनिकों का मत आकाश के संबंध में जैन दर्शन से भिन्न रहा है। प्लेटो ने कहा है कि 'कोरा आकाश' का अस्तित्व सदैव भौतिक पदार्थों के साथ जुड़ा हुआ होता है, स्वतंत्र रूप से उसका कोई महत्त्व नहीं है।
विज्ञान के क्षेत्र में आइंस्टीन के सापेक्षवाद सिद्धांत ने आकाश और काल को समन्वित मान कर, दर्शनों के समक्ष नया सैद्धान्तिक तथ्य प्रस्तुत कर दिया है। अतः आकाश और दिशाओं का अध्ययन रुचिकर विषय बन गया है। इस संदर्भ में हम पाठकों के लिए जैन आगम साहित्य में वर्णित दिशाओं का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत करेंगे। आगमिक स्वरूप
आचारांग सूत्र में पुनर्जन्म की स्थापना के वर्णन में दिशाओं का उल्लेख निम्न प्रकार से हुआ है -
मैं पूर्व दिशा से आया हूं, अथवा दक्षिण दिशा से आया हूं, अथवा पश्चिम दिशा से आया हूं, अथवा उत्तर दिशा से आया हूं, अथवा ऊर्ध्व दिशा से आया हूं, अथवा अधः दिशा से आया हूं, अथवा किसी अन्य दिशा से आया हूं, अथवा अनुदिशा से आया हूं।
उपर्युक्त प्रकरण में छह दिशाओं का वर्णन हुआ है। वे हैं पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा ऊर्ध्व और अधः । इसके अतिरिक्त अनुदिशा और अन्य दिशा