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[ जैन विद्या और विज्ञान
समाप्त हो गई। उसके बेटे पोते हुए । इस प्रकार सात पीढ़ियां बीत गई। तब तक वे देवता चलते रहे, फिर भी लोक के अन्त तक नहीं पहुंचे। हां, वे चलते-चलते अधिक भाग पार कर गए। बाकी रहा वह भाग कम है वे चले उसका असंख्यावां भाग बाकी रहा है उससे असंख्यात गुणा भाग पार कर चुके हैं। इस गणित से यह प्रतीत होता है कि यह लोक बहुत बड़ा है और इससे यह ज्ञात होता है कि उन दिनों गणित किस तरह विकास
कर रहा था ।
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विज्ञान की धारणा
विज्ञान जगत के समक्ष यह ज्वलंत समस्या है कि यद्यपि विश्व सीमित है लेकिन सीमित विश्व की सीमाएं किससे निर्धारित करें। क्योंकि आकाश में, आकाश द्वारा सीमाएं कैसे निर्धारित हो ? अर्थर एडिंगटन ने इस सीमित विश्व को बिना सीमा ( boundary) का माना है। इस अवधारणा से इस मान्यता को बल मिला है कि इस सीमित विश्व के बाहर कुछ और है। अगर "कुछ और" है तो वह क्या है ? वह विश्व के बाहर कैसे हैं ? वह भौतिक है या अभौतिक है ? अगर भौतिक हैं तो वह सीमाओं को प्रभावित करता रहेगा। इस सम्बन्ध में आधुनिक विज्ञान की भाषा में कहा जाता है कि 'इस ब्रह्माण्ड की बाऊण्ड्री स्थिति यह है कि इसकी कोई बाऊंड्री नहीं है।' यह ब्रह्माण्ड अपनी संरचना में अंदर से ही पूर्ण है और अन्य किसी बाहरी प्रभाव से प्रभावित नहीं है। इस कारण न तो ब्रह्माण्ड की कभी रचना का होना माना जा सकता है और न ही इसका कभी पूर्ण विनाश हो सकता यह केवल " है" । यह कहना न्यायसंगत है।.
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विज्ञान की इस उलझन भरी स्थिति की तुलना में जैन दर्शन के लोकवाद की स्थिति स्पष्ट है जहां धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय, ये दो द्रव्य मान्य हैं।
जैन कॉस्मोलोजी
जैन दर्शन में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यों को मानने के तीन लाभ हुए ।
1. गति और स्थिति के नियामक तत्त्व निर्धारित हो सके ।
2. लोक और अलोक के बीच की सीमाएं निर्धारित हो सकी ।
3. अलोक में केवल अभौतिक आकाश होने के कारण, लोक की
सीमाएं बाहर से प्रभाव मुक्त हो गई। गणित की भाषा में लोक की सीमाओं पर अलोक का प्रभाव शून्य हो गया ।