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________________ द्रव्य मीमांसा और दर्शन] [91 (v) सीमित विश्व - विज्ञान के संदर्भ में पिछले पचास वर्षों में कास्मोलॉजी के क्षेत्र में अत्यन्त विकास हुआ है। सीमित विश्व की मान्यता प्रबल होती जा रही है। सर्वप्रथम न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के आधार पर इस विश्व को सीमित स्वीकार किया था क्योंकि सभी वस्तुएं परस्पर एक दूसरे को आकर्षित करती हैं। परस्पर आकर्षण के कारण वस्तुएं अनन्त आकाश में नहीं जा सकती। इस मान्यता को वर्तमान में प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री स्टीफन हॉकिंग भी स्वीकार करते हैं कि इतने बड़े विश्व के आकार का नियन्ता गुरुत्वाकर्षण ही है। सापेक्षता के सिद्धान्त ने तथा समरूपता (Entropy) की अवधारणा ने विश्व को सीमित बताया है। सापेक्षता सिद्धान्त और यांत्रिकी क्वांटम (Quantum mechanism) दोनों से इस विश्व को देखते हैं तो आकाश और काल चतुष्आयामी बन जाते हैं। इन आयामों में तीन आकाश के और एक काल का आयाम होता है जो सीमित विश्व को निर्धारित करता है। ___लोक-आकाश सीमित है, सान्त है। गणित-विज्ञान के विद्वान एच. वार्ड कहते हैं – “सम्पूर्ण पदार्थ, सम्पूर्ण आकाश की एक सीमा में रहते हैं, इसलिए विश्व सान्त है। यह सम्पूर्ण आकाश इस प्रकार घुमावदार (कवर्ड) है कि प्रकाश की एक किरण आकाश की एक सीधी रेखा में लम्बे समय तक यात्रा करने के बाद पुनः अपने बिंदु पर आ जाएगी। गणितज्ञों का अनुमान है कि प्रकाश की एक किरण को आकाश में इस चक्कर को पूरा करने में दस ट्रिलियन वर्ष से कम नहीं लगता। इससे यह प्रमाणित होता है कि आकाश ससीम है, सान्त है।" (vi) सीमित विश्व की सीमाएं आइंस्टीन ने लोक का व्यास एक करोड़ अस्सी लाख प्रकाश वर्ष माना है। एक प्रकाश वर्ष उस दूरी को कहते हैं जो प्रकाश की एक किरण एक लाख छियासी हजार (1,86000) मील प्रति सैकण्ड के हिसाब से एक वर्ष में तय करती है यह गणना संख्यातीत अर्थात् असंख्यात हो जाती है। जैनों की धारणा जैन आगमिक भाषा में लोक की परिधि एक रूपक के द्वारा समझाई है। अगर छ: देवता शीघ्रतम गति से लोक का अन्त लेने के लिए छहों दिशाओं (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊँची नीची) में चले। ठीक उसी समय एक सेठ के घर में एक हजार वर्ष की आयु वाला एक पुत्र जन्मा------ उसकी आयु
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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