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[ जैन विद्या और विज्ञान
करना पड़े। इस दृष्टि से जैन दर्शन के लोक-अलोक की मान्यता को वैज्ञानिक पुष्टि का आधार निर्मित हो रहा है। ऐसा माना जा सकता है। (iii) गति तत्त्व
__ आचार्य महाप्रज्ञ ने विज्ञान के संदर्भ में धर्मास्तिकाय की तुलना गति तत्त्व के साथ करने पर पाया कि वैज्ञानिकों में सबसे पहले व्यवस्थित ज्ञान गैलिलीयो ने और बाद में न्यूटन ने गति तत्त्व (medium of motion) को स्वीकार किया और इसके नियम प्रस्तुत किए। न्यूटन के बाद प्रसिद्ध गणितज्ञ अलबर्ट आइंस्टीनं ने भी गति तत्त्व की स्थापना करते हुए कहा - "लोक परिमित है लोक के परे अलोक अपरिमित है। लोक के परिमित होने का कारण यह है कि द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर नहीं जा सकती। लोक के बाहर उस शक्ति का - द्रव्य का अभाव है, जो गति में सहायक होता है।" विज्ञान के इस निष्कर्ष पर आचार्य महाप्रज्ञ ने सार्थक टिप्पणी करते हुए लिखा है कि जहां विज्ञान के अध्यापक अपने छात्रों को गति तत्त्व का उपर्युक्त अर्थ . समझाते हैं वहां ऐसा लगता है मानो कोई जैन गुरु अपने शिष्यों के सामने धर्म-द्रव्य की व्याख्या कर रहा हो। (iv) विज्ञान जगत में 'इथर' तत्त्व की अमान्यता
विज्ञान जगत में यह माना गया था कि प्रकाश की गति के लिए 'इथर' द्रव्य समूचे आकाश में विस्तार लिए हुए है। जिस प्रकार शब्द की तरंगों को गति के लिए वायु की आवश्यकता है, उसी प्रकार प्रकाश तरंगों को 'इथर की आवश्यकता है किंतु यह धारणा अधिक दिनों तक मान्य नहीं रही क्योंकि 1905 में आइंस्टीन ने 'इथर' द्रव्य को अनावश्यक बताया। माईकलसन और मोर्ले के प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हुआ कि प्रकाश की गति को अगर मापा जाए तो वह प्रत्येक निरीक्षणकर्ता के लिए चाहे वह स्वयं स्थिर हो या गतिशील - एक समान पाई जाएगी। आइंस्टीन का यह तर्क रहा कि भौतिक 'इथर' की उपस्थिति में प्रकाश की गति बाधित होनी चाहिए थी अर्थात् गति में कुछ कमी आनी चाहिए थी, जो विभिन्न प्रयोगों में प्रदर्शित नहीं हुई। अतः विज्ञान के क्षेत्र से 'इथर' तत्व को विदा कर दिया गया क्योंकि यह गवेषणा इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकी कि 'इथर' भौतिक है या अभौतिक। यह तो स्वीकार कर लिया गया कि इथर ठोस, द्रव, गैस रूप नहीं अर्थात् पदार्थ नहीं, किंतु इसके प्रमाण भी उपलब्ध नहीं हुए कि 'इथर' अभौतिक है। इस स्थिति में इथर की मान्यता वैज्ञानिक जगत में नहीं रही। ..