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द्रव्य मीमांसा और दर्शन ]
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(4) जीव और पुद्गल गतिशील और मध्यम परिणाम वाले तत्त्व हैं। अतः इनसे विभाजन संभव नहीं ।
अतः पाठकों को धर्म और अधर्म द्रव्यों के गुण और व्यवहार को समझना आवश्यक हैं जो लोक और अलोक में विभाजन के कारण हैं ।
(ii) धर्मस्तिकाय, अधर्मास्तिकाय
यह द्रव्यद्वयी, अर्थात् धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय अभौतिक द्रव्य है जो स्थिर और लोक में व्यापक है। ये द्रव्य जहां तक है वहीं तक जीव और पुद्गल की गति और स्थिति संभव है । धर्म गति में केवल निमित्त कारण है, उपादान कारण तो जीव और पुद्गल ही है। मछली का पानी में गति करने का उदाहरण इस संबंध में दिया जाता है वह अत्यंत स्थूल है, क्योंकि पानी स्वयं गति करता है, धर्मास्तिकाय स्वयं गति नहीं करता। जैन दर्शन में धर्मास्तिकाय गति तत्त्व को अभौतिक माना गया है अतः उसे आंखों से देखना संभव नहीं है और यह पुद्गल पदार्थ की गति में किसी प्रकार बाधक नहीं है। धर्मास्तिकाय के महत्त्व को बताते हुए भगवान महावीर ने कहा है कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्पंदन मात्र है, वे सब धर्मास्तिकाय की सहायता से प्रवृत होते हैं । धर्मास्तिकाय के अभाव में न ध्वनि की तरंग गति कर सकती है, न प्रकाश की किरण गति करती है, और न पलक झपक सकती है। हमारा चलना फिरना, सोना या श्वासोच्छश्वास लेना इन सब क्रियाओं में यह द्रव्य सहायक है ।
अधर्म, धर्म का प्रतिपक्षी द्रव्य है जो वस्तु और जीव को स्थिति (rest ) देने में निमित्त कारण है। जर्मन विद्वान शूबिंग ने जैन दर्शन के अध्ययन के बाद अधर्म को ठहराव (Stop) का निमित्त कारण माना है अर्थात् जब पुद्गल गति करता हुआ, ठहरता है तो उस समय अधर्म-द्रव्य उपयोगी है। इस ब्रह्माण्ड में अनेक पुद्गल पदार्थ आकाश में लम्बे समय से ठहरे हुए हैं। अधर्मास्तिकाय, पुद्गल और अन्य सभी द्रव्यों की स्थिति में निमित्त कारण माना गया है।
यह आश्चर्य की बात है कि धर्म और अधर्म द्रव्यों को जैन दर्शन के अतिरिक्त किसी भी अन्य दर्शन ने स्वीकार नहीं किया है। लेकिन यह महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान में वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड को जानने में विशेष रूप से प्रयत्नशील हैं कि यह ब्रह्माण्ड सीमित है या असीमित । संभवतः ब्रह्माण्ड को सीमित मानने के कारणों में विज्ञान को भी अन्य द्रव्यों की सत्ता को स्वीकार