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[जैन विद्या और विज्ञान
ब्लैक होल के व्यवहार को जानने का प्रयत्न हो रहा है तो दूसरी ओर सूक्ष्मतम क्वार्क और ग्लूऑन की खोज कर रहा है। ऐसे में जैन दर्शन और विज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। किन्तु इस तुलना के पूर्व हम पाठकों के लिए विज्ञान में ब्रह्माण्डीय अध्ययन की ऐतिहासिक प्रगति गाथा को प्रस्तुत करेगें। ऐतिहासिक दृष्टि से ब्रह्माण्ड का वैज्ञानिक अध्ययन (i) ऐतिहासिक दृष्टि से ब्रह्माण्ड के वैज्ञानिक अध्ययन का प्रारम्भ
कोपरनिक्स से माना जाता है जब उसने 1514 में सूर्य को ब्रह्माण्ड का केन्द्र माना। 1609 में गैलिलियो ने दूरबीन के प्रयोग से इसकी पुष्टि की। 1687 में न्यूटन ने ब्रह्माण्डीय गोलों की . . कक्षाओं का गणितीय स्वरूप तैयार किया और उसके साथ ही गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इससे यह निश्चित
हो गया कि ब्रह्माण्ड किसी सीमा में नहीं बंधा है। (ii) "गुरुत्वाकर्षण हमेशा आकर्षण पैदा करता है" इस धारणा ने
अनन्त ब्रह्माण्ड और अनन्त तारों का नमूना (Model) प्रस्तुत किया। इससे यह संदेह हुआ कि परस्पर आकर्षण से सभी तारे केन्द्र में खींच जाएंगे और विनष्ट हो जाएंगे। लेकिन अनन्त तारों की धारणा ने ब्रह्माण्ड को केन्द्र विहीन और स्थिर बताया। मगर न्यूटन ने स्थिर और अनन्त जगत की मान्यता को असत्य सिद्ध
किया। (iii) न्यूटन और उसके बाद सन् 1823 में हेनरिच ओल्वर्स ने प्रश्न
किया कि अगर ब्रह्माण्ड अनादि है तो अब तक समस्त आकाश अनन्त तारों के प्रकाश से पूर्णरूप से प्रकाशित हो चुका होता क्योंकि हर एक तारे का प्रकाश अपनी ऊर्जा से समस्त पदार्थ को प्रज्वलित कर चुका होता। इसका कारण यह है कि इतने लम्बे समय में प्रकाश किरण की ऊर्जा पदार्थ में कहीं न कहीं शोषित हो जाती। मगर ब्रह्माण्ड तो अंधकारमय है। ब्रह्माण्ड को अनादि नहीं माने जाने का यह सशक्त तार्किक प्रमाण दिया
गया। (iv) इसके बाद इस विषय के अध्ययन में अचानक मोड़ आया जब
1929 में यह बताया गया कि निहारिकाएं एक दूसरे से दूर हो