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[जैन विद्या और विज्ञान
परिणामी नित्यत्ववाद
न सर्वथा नित्य, न सर्वथा अनित्य
परिणामी नित्यत्ववाद जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इसके अनुसार कोई भी द्रव्य (वस्तु) न सर्वथा नित्य हैं और न सर्वथा अनित्य, किन्तु परिणामी-नित्य है। द्रव्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य -युक्त है अर्थात् द्रव्य में परिणमन होता है.- उत्पाद और व्यय होता है, फिर भी उसकी स्वरूप-हानि नहीं होती। परिणाम के बाद भी जो समानता, पूर्व और उत्तर परिणाम में रहती है - वह द्रव्यत्व है और जो असमानता प्रकट होती है, वह पर्याय है। इस रूप में द्रव्य न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। वस्तुदृष्टया संसार में जितने द्रव्य हैं, उतने ही थे और उतने ही रहेंगे। उनमें से न कोई घटता है और न कोई बढ़ता है। परिभाषा ___परिणामी नित्यत्ववाद को परिभाषित करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने भगवती भाष्य में लिखा है कि द्रव्य का अस्तित्व समाप्त नहीं होता, इस अर्थ में वह नित्यवादी है। द्रव्य में परिणमन होता रहता है, इस अर्थ में वह परिणामवादी है। द्रव्य और परिणमन को पृथक नहीं किया जा सकता अतः उसे परिणामी नित्यत्ववाद का सिद्धान्त कहा है। ' किंशरीरत्व
इस सिद्धान्त को समझाने के लिए 'किंशरीरत्व' का पाठ एक निदर्शन है। चावल वनस्पति-जीव का शरीर है। अग्नि पर पका लेने के पश्चात् वह अग्नि-जीव का शरीर हो जाता है। पूर्ण परिणाम में वह वनस्पति-जीव शरीर था, उत्तर परिणाम में वह अग्नि-जीव-शरीर हो गया। उत्तर परिणाम में पूर्व परिणाम नहीं रहता। परिणाम का फल है - भावान्तर हो जाना। लोहा पृथ्वीजीव का शरीर है। हड्डी त्रस जीव का शरीर है। अग्निस्नात होने पर वे अग्निशरीर हो जाते हैं। उनकी दृष्टि में परिणामी नित्यत्ववाद की भांति, रसायन विज्ञान का 'द्रव्याक्षरत्ववाद' भी यही व्याख्या करता है कि द्रव्य सर्वथा कभी विनाश नहीं होता और न कभी सर्वथा नए द्रव्य की उत्पत्ति होती है। आचार्य महाप्रज्ञ ने द्रव्याक्षरत्ववाद का उल्लेख निम्न प्रकार से किया है।