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________________ द्रव्य मीमांसा और दर्शन - "आचार्य महाप्रज्ञ का रचना संसार", पुस्तक के आत्म कथ्य में आचार्य महाप्रज्ञ ने उल्लेख किया है कि "वि. सं. 2000 से 2005 इन पाँच वर्षों में दर्शन के अनेक ग्रन्थों का मैं अध्ययन कर चुका था। छापर चातुर्मास में एक विकल्प उठा – मैं जैन दर्शन के विषय पर कोई ग्रन्थ लिखू। संकल्प जल्दी ही क्रियान्विति में बदल गया। मैंने जैन दर्शन पर एक ग्रन्थ लिखना शुरू किया। इस ग्रन्थ का नाम रखा गया - जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व। कुछ वर्षों बाद उसका नाम परिवर्तन किया गया। उसका परिवर्तित नाम है - जैन दर्शन मनन और मीमांसा। इसके लेखन में अनेकान्त दृष्टि का प्रयोग किया गया इसलिए इसमें विरोध का सूत्र नहीं खोजा जा सकता। समन्वय का सूत्र यत्र-तत्र सर्वत्र खोजा जा सकता है। जैन दर्शन का समग्रता से अध्ययन करने के लिए यह ग्रन्थ सर्वमान्य हो गया है। आचार्य महाप्रज्ञ का दर्शन पर यह पहला ग्रन्थ है। उनकी साहित्यसाधना को समझने से पूर्व इस प्रथम ग्रन्थ के कुछ अध्याय अवलोकनीय हैं। बीसवीं सदी के आठवें दशक के इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें जैन दर्शन के तत्त्वों के विवेचन में, आधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान के निष्कर्षों से तुलना व्यवस्थित रूप से की गई है। आवश्यकतानुसार विज्ञान की सहायता से नई व्याख्याएं भी दी हैं। विज्ञान के साथ इस निकटता का यह प्रभाव हुआ कि आधुनिक विज्ञान में रुचि रखने वालों पाठकों का ध्यान जैन दर्शन की ओर आकर्षित हुआ। आचार्य महाप्रज्ञ की यह मौलिक घोषणा अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि 'जगत को जानना भी बहुत जरूरी है। जगत को जाने बिना अपने आप को नहीं जाना जा सकता। जगत को क्यों जानें ? जगत के स्वभाव को जानें और जगत में हमारा स्थान क्या है, इसे भी जानें।' इस संदर्भ में पाठकों के लिए जैन दर्शन मनन और मीमांसा पुस्तक में से कुछ महत्त्वपूर्ण विषय प्रस्तुत हैं। विषय को अधिक स्पष्ट करने के लिए कहीं कहीं वैज्ञानिक विवेचन विस्तार में किया गया है।
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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