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[जैन विद्या और विज्ञान
प्रस्तुत हो जाते हैं। यह भी मान्यता रही है कि यौगलिक परम्परा के साथसाथ ये कल्पवृक्ष भी लुप्त हो जाते हैं। ___आचार्य महाप्रज्ञ ने इस संबंध में नई व्यवस्था देते हुए लिखा है कि उपर्युक्त रूढ़ मान्यता का कोई आधार नहीं है। समवायांग और स्थानांग सूत्र में, यौगलिक युग में दस प्रकार के विशिष्ट वृक्षों का उल्लेख हुआ है। इस. संबंध में वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने इन वृक्षों को यौगलिकों की अल्प आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन मात्र माना है। आचार्य महाप्रज्ञ ने इसका विश्लेषण करते हुए लिखा है कि यौगलिक मनुष्य की आवश्यकताएं बहुत कम थीं और वह सब इन वृक्षों से सहजता से पूरी हो जाती थी। वृक्षों के वर्णन में बताया है कि मधर और मनोज्ञ रस, मदिरा देने वाले, आवास आकार वाले वृक्ष आदि जीवन की सुविधाएं इन वृक्षों से प्राप्त हो जाती थीं। इसलिये इन्हें कल्पवृक्ष कह दिया। इन विभिन्न प्रकार के वृक्षों के भिन्न भिन्न प्रयोग होते थे परन्तु ऐसा नहीं था कि किसी कल्पवृक्ष के नीचे खड़े होकर सप्तभौम की कल्पना करने मात्र से सप्तभौम प्रासाद तैयार हो जाता अथवा खीर-पूरी की इच्छा करने मात्र से वह मिल जाती। ये सारी बातें उपचार से कह दी जाती है। ___भारतीय सहित्य में इच्छापूर्ति के साधन स्वरूप तीन चीजें बहुचर्चित है - कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृक्ष । कामना करने मात्र से, चिन्तन करने मात्र से और कल्पना करने मात्र से वस्तु की प्राप्ति हो जाना क्रमशः इन तीनों का कार्य माना जाता है। वास्तव में तीनों एक हैं और आवश्यकता पूर्ति के जो जो साधन हैं वे सब इनके वाचक बन जाते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ का यह विश्लेषण, कल्पवृक्ष में किसी दैवीय वृत्ति को स्वीकार नहीं करता जो चाहे जो वस्तु प्रदान कर दे। वृक्ष के व्यवहार को, वृक्ष के रूप में ही माना है। वृक्षों से अनेक प्रकार की वस्तुएं प्राप्त होती है, वे सीमित इच्छाओं वाले यौगलिकों की आवश्यकता पूरी कर देते हैं। इससे अधिक वृक्षों से किसी युग में चमत्कारिक प्रभाव की आशा नहीं की जा सकती। 12. आगमों का रचना काल
कुछ विदेशी विद्वानों का स्वर रहा है कि आचारांग सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध भाषा और शैली की दृष्टि में सबसे प्राचीन है। आचार्य महाप्रज्ञ ने आचारांग को योजना की दृष्टि से प्रथम माना है न कि रचना काल की दृष्टि से क्योंकि आगमों की रचना के पहले, पूर्वो की रचना हो चुकी थी। इस स्थापना के कारण उन सभी भ्रान्तिओं