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नया चिन्तन]
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का निराकरण हो गया जो विभिन्न विषयों के विभिन्न आगमों में होने के कारण हुई हैं। कोई विषय, किसी आगम में विस्तार से है तो कहीं सांकेतिक रूप से वर्णित हुआ है। आचार्य महाप्रज्ञ इस संदर्भ में मीमांसा करते हुए समवायांग और नन्दी सूत्र में उपलब्ध द्वादशांगी के विवरण से इस तथ्य की पुष्टि करते है कि(i) आचारांग में निग्रंथों के आचार-गोचर, विनय-वैनयिक शिक्षा-भाषा
आदि आख्यात हैं। . (ii) सूत्रकृतांग में लोकं-अलोक, जीव-अजीव ,स्वसमय परसमय की
सूत्र रूप में सूचना हैं। (iii) स्थानांग में स्वसमय-परसमय, जीव-अजीव, लोक-अलोक की स्थापना
या प्रज्ञापना हैं। (iv) समवायांग में जीव-अजीव, लोक-अलोक, स्वसमय-परसमय की
समस्थिति का निरूपण है अथवा संक्षिप्त विमर्श हैं। - (v) व्याख्या प्रज्ञप्ति में जीव-अजीव, लोक-अलोक, स्वसमय-परसमय
की व्याख्या है। . इस प्रकार हम पाते है कि सभी आगमों में मौलिक तत्त्वों की चर्चा हुई : है लेकिन वह कहीं प्रासंगिक मात्र है तो कहीं संक्षिप्त वर्णन है तो कहीं विस्तार
दिया गया है. अतः सभी के समन्वय से ही विषय का ज्ञान पूर्ण होता है। .. अतः परस्पर में एक आगम से दूसरे आगम के किसी विषय के वर्णन में अन्तर
प्रकट करना अभीष्ट नहीं हैं । यह पूर्व में ही आचार्य महाप्रज्ञ ने स्पष्ट कर दिया था कि आगमों की रचना को ऐतिहासिक काल की दृष्टि से अलग- अलग अंकन करना सार्थक नहीं है क्योंकि रचनाएं योजनाबद्ध ढंग से हुई
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