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शोननकृतजिनस्तुति. विषे देव असुर-एऊना वेषु, शब्द करे एवा अमरपतयः के चोसत इंद-थ तितप्ता ध्वनद सुरामरवेण-अर्ति के० पीडा तेणे जे तप्त के ताप पामेला; तेज ने शैत्य उप्तन्न करवा माटे सादात् अध्वनद के मार्ग मध्येज प्राप्त थएलो जे नद के हृद तेना सरखो सुराम के अत्यंत मनोहर जे रव के० स्तुतिरूप सुस्व र शब्द, तेणे करीने वस्तुवंति के० वस्तु नामकबंद विशेषने प्रगाय के० उत्तम प्रका रे गायन करीने स्तुवंति के ० स्तुति करे. तके ते जिनसमूहने स्तुत के त मे स्तवन करो. एटले जेना पार्श्वनागे देव थने असुर, ते वेणुना शब्द स्तुति क रेडे; ते चोशठ इंश बंदना सुस्वर गायने करी जे जिनसमूहनी स्तुति करेले; ते जि नसमूहप्रत्ये तमे स्तवन करो. एवो नावार्थ ॥ ५ ॥
प्रवितर वसतिं त्रिलोकबंधो गमनय योगततां तिमे पदे दे॥ जिनमत विततापवर्गवीथी गमनययो गततांति मे पदेहे॥३॥ व्याख्या-हे त्रिलोकबंधो के त्रणेलोकना बांधव एवा, अने गमनययोगत त-गम के समान पाउने घालावे करीने नययोगके नैगमादिक नयनोजे संबंध तेणे करी तत के विस्तीर्ण एवी अने विततापवर्गवीथीगमनययो-वितत के विशा ल एवी जे अपवर्गवीथी के मोदमार्ग, तेने विषे गमन के जवं, ते विषे ययु के अवसरखा हे जिनमत के हे जिन सिद्धांत ! तुं अपदेहे के शरीररहित एवा अंतिमेपदे के मोहरूप लोकायवर्ति स्थाननेविषे मे के ढुं जे-तेने वसतिं के वासस्थान प्रत्ये गततांति के ० ग्लानतारहितपणे प्रवितर के समर्पण कर. एटले हे जिनसिक्षांत! तुं मने मोदस्थाननेविषे वास आप. एवो भावार्थ ॥३॥
सितशकुनिगताशु मान सी धाततति मिरं मदनासुरा जिताशं॥ वितरतु दधती पविं दतोद्यत्तततिमिरं मदनासुराजिता शं॥४॥ व्याख्या-ते मानसी के मानसीनामक देवी, शंके० सुखने थाशु के शीघ्र वितरतु के आपो. ते मानसी देवी केवीने? तो के-सितशकुनिगता-सित के शु जवर्ण एवो जे शकुनिपदी अर्थात् राजहंस, तेनेविषे गता के बारोहण कर नारी अने रंमदनासुरा के विजली सरखी दैदीप्यमान अने पोताना हाथनेवि षे श्वात्ततात-३० के० प्रदीप्त एवी बात के ग्रहण करी ततिं के विस्तार जे णे एवी अने पोतानी कांतीए दत के नाश कस्योडे, उद्यत् के० उदय पामनारो
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