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इस प्रश्न के उत्तर में मणिभद्र अपने सेठ का परिचय देते हुए कहता है कि हमारे स्वामी में एक ही वस्तु है और वह है विवेक-भाव और जो एक वस्तु नहीं है, वह है अनादर। अथवा दो वस्तुएं है--परोपकारिता तथा धर्म की अभिलाषा, जो दो वस्तुएं नहीं हैं, वे है अहंकार और कुसंगति । अथवा तीन वस्तुएं उनमें हैं और तीन नहीं हैं। उनमें कुल, शील एवं रूप हैं, जबकि दूसरे को नीचा दिखाना, उद्धत्तता और परदारागामित्व नहीं है। अथवा उनमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार वस्तुएं हैं और फल की अभिलाषा, बड़ापन की भावना, विषयान्धता एवं दुःखी को कष्ट पहुंचाना ये चार बात नहीं है। अथवा उनमें ज्ञान, विज्ञान, कृतज्ञता और आश्रितों का पोषण ये पांच बातें पायी जाती हैं एवं दुराग्रह, असंयम, दीनता, अनुचित व्यय और कर्कश भाषा ये पांच बातें नहीं पायी जाती है।
इस प्रकार र्तालापों द्वारा नैतिक तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है । यद्यपि इस प्रकार के वार्तालाप कथावस्तु के विकास में गत्यवरोध उत्पन्न करते हैं, तो भी इनसे संस्कृति के सूक्ष्म तथ्यों को व्यंजना हो जाती है ।
भाषा की दृष्टि से इस कृति में उद्वत्तस्वरों के सन्धि-लोपत, श्रुति-भेदादि-प्रयोग, समसंस्कृत प्रयोग, सिद्धसंस्कृत प्रयोग, विभक्तिव्यत्यय, विभक्तिलोप और वर्णव्यत्यय प्रादि अनेक महत्वपूर्ण प्रयोग उपलब्ध हैं । छन्द का मेल बैठाने के लिए जहां-तहां दीर्घ स्वर या ह.स्व स्वर और ह.स्व का दीर्घ स्वर भी मिलता है । "वेसाहिया जइसिय केणई अलद्ध ज्झ, जुवइ चरिउ जइसिय अइकुडिलमग्ग" --आदि में अपभ्रंश भाषा भी मिलती है। चर्चरी गीत, कालनिवेदक गीत और प्रहेलिका में प्रायः भाषा को प्रवृत्ति प्रमभ्रंश को ओर है । अतः इस कृति की भाषा की दृष्टि से भी अधिक उपयोगिता है ।
सुरसुन्दरी-चरियं
इस महत्वपूर्ण प्राकृत कथाकृति के रचयिता धनेश्वर सूरि है। इन्होंने इस ग्रंथ के अंत में दी हुई प्रशस्ति में बतलाया है कि महावीर स्वामो के शिष्य सुधर्म स्वामी, सुधर्म स्वामी के शिष्य जम्बू स्वामी, उनके शिष्य प्रभव स्वामो, प्रभव स्वामी के शिष्य वजास्वामी, इनके शिष्य जिनेश्वर सूरि, जिनेश्वर सूरि के शिष्य अल्लकोपाध्याय (उद्योतन सूरि), इनके वर्धमान सूरि और वर्धमान सूरि के दो शिष्य हुए--जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागर सूरि । यही जिनेश्वर सूरि धनेश्वर सूरि के गुरु थे। इन जिनेश्वर सूरि ने लीलावती नाम की प्रेमकथा लिखी है। धनेश्वर नाम के कई सूरि हुए है । ये किस गच्छ के थे इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। प्रशस्ति से इतना ही ज्ञात होता है कि इस ग्रंथ को रचना चड्डावलि (चन्द्रावतो) स्थान में वि० सं० १०६५ में भाद्रपद कृष्ण द्वितीया गुरुवार को धनिष्ठा नक्षत्र में को गयो है ।
१... भणियो य ते ण माणिभद्दो जहा अहो बद्दमुह किं तुम्ह सत्थवाहस्स अत्थजायमस्थि ?
के रिसा वा गुणा? कि पभूयं वित्तं, कि वा दाउं समत्थो ? त्ति ।....... इह अम्ह सामियस्स एक्कं चेव अत्थि विवे इत्तणं, एक्कं च णत्थि अणायारो ।
. . . . . . . . चउ०, पृ० ११ । २. -चउ०, पृष्ठ १३८-१३६ । ३-चड्डावलि-पुरि-ठिो स-गुरुणो आणाए पाढंतरा ।
कासी विक्कम-वच्छरम्मि य गए बाण कं-सन्नोडपे । मासे भ६ य गुरुम्मि कसिणो बीया-घणिट्ठादिणे ॥---सु० च०, सोलहवां परिच्छेद, गा० २५०-५१ ।
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