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परिचय और समीक्षा
इस कृति में १६ परिच्छेद हैं और कुल ४,००१ गाथाएं हैं । इस प्रेमकथा की गठन बड़ी कुशलता से की गयी हैं । मूलकथा के साथ प्रासंगिक कथाओं का गुम्फन घटना परिकलन के कौशल का द्योतक है । परिस्थिति विशेष में मानसिक स्थितियों का चित्रण, वातावरण की सुन्दर सृष्टि, चरित्रों का मनोवैज्ञानिक विकास, राग-द्वेष रूप वृत्तियों के मूल संघर्ष एवं व्यक्ति के विभिन्न रूपों का उद्घाटन इस कृति के औपन्यासिक गुण हैं | प्रसिद्ध अंग्रेजी उपन्यासकार हैनरी जेम्स ने कहा है -- उपन्यास को सता का एकमात्र कारण यह है कि वह जीवन को चित्रित करने का प्रयत्न करता है । इससे स्पष्ट है कि इस कृति में जीवन के विविध पहलुओं के चित्रण के साथ प्रेम, विराग और पारस्परिक सहयोगों का पूर्णतया चित्रण किया गया है । संसार के समस्त व्यापार और प्रवृत्तियों में कामना के बीज वर्तमान हैं, अतः राग द्वेषात्मक व्यापार के मूल में भी प्रेम का ही अस्तित्व रहता है । लेखक ने धार्मिक भावना के साथ काम प्रवृत्ति का भी विश्लेषण किया है । चरित्रों के मनोवैज्ञानिक विकास, व्यक्तित्वों के मार्मिक उद्घाटन एवं विभिन्न मानवीय प्रवृत्तियों के निरूपण में लेखक को पूर्ण सफलता मिली है ।
भिल्लों की क्रूरता, कनकप्रभ की वीरता, प्रियंगुमंजरी को जातिस्मरण होने पर विह्वलता, सुरसुन्दरी और कमलावती का विलाप एवं शत्रुंजय और नरवाहन का युद्ध प्रभृति कथानक कथावस्तु को सरस ही नहीं बनाते, बल्कि उसमें गति और चमत्कार भी उत्पन्न करते हैं । कथा की भावात्मक सत्ता का विस्तार मानव जीवन की विविध परिस्थितियों तक व्याप्त है । महच्चरित्र के विराट उत्कर्ष को इस कृति में अंकित किया गया है । धर्म विशेष के सिद्धांतों के निरूपण में कथातत्त्व का इतना सुरक्षित रहना और प्रेम की विभिन्न अवस्थाओं का अंकन करना तथा अनेक रागविरागों के बीच जीवन के विविध संघर्षो का अंकन करना, इस कृति के प्रमुख गुण हैं ।
अवान्तर कथाओं के अतिरिक्त अधिकारी कथा का कथानक बहुत संक्षिप्त और सरल है । धनदेव सेठ एक दिव्यमणि की सहायता से चित्रवेग नामक विद्याधर को नागों के पाश से छुड़ाता है । दीर्घकालीन विरह के पश्चात् चित्रग का विवाह उसको प्रियतमा के साथ होता है । वह सुरसुन्दरी को अपने प्रेम, विरह और मिलन की आशा-निराशामी कथा सुनाता है । सुरसुन्दरी का विवाह भी मकरकेतु के साथ सम्पन्न हो जाता है । अन्त में ये दोनों दीक्षा ले लेते हैं । अन्तर्क यात्रों का जाल इतना सघन है कि कथा की नायिका का नाम पहलीबार ग्यारहवें परिच्छेद में आता है । इस धार्मिक उपन्यास का नामकरण सुरसुन्दरी -- नायिका के नाम पर हुआ है । इस सुन्दरी नायिका का रूप अमृत, पद्म, सुवर्ण, कल्पलता और मन्दार पुष्पों से संभाला गया है । वास्तव में यह कवि की मनोहर सृष्टि हैं । लेखक ने इस नायिका के जोबन के दोनों पहलुओंों को उपस्थित किया है -- एक ओर उसका शृंगारी जीवन और दूसरी ओर विरक्त जीवन ।
चरितकाव्य होने पर भी इस कृति को उपन्यास के गुण रहने से कथा मानना अधिक युक्तिसंगत हैं । रसों को विविधता के बीच शान्तरस का निर्मल श्वेत जल प्रवाह अपना पृथक्, अस्तित्व व्यक्त कर रहा है। लाटानुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, रूपक आदि अलंकारों के प्रयोग वर्गों को सरस बनाते हैं । उपमा का एका उदाहरण दर्शनीय है । विरहावस्था के कारण बिस्तर पर करवट बदलते हुए और दोर्घ निश्वास छोड़कर संतप्त हुए पुरुष की उपमा भाड़ में तूने जाते हुए चनों के साथ दो है । कवि कहता है
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afgarगोविय समणीये कीस तडफडसि - ३ । १४८
१--आर्ट ऑफ दी नाविल, पृ० ५ ।
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