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इसी प्रकार कोई प्रियतमा अपने पति के मुखसौन्दर्य को देखते हुए नहीं अघाती और उसकी दृष्टि उसके मुख से हटने में उसी प्रकार असमर्थ है, जिस प्रकार कीचड़ मं फंसी हुई दुर्बल गाय कीचड़ से निकलने में ।
एयस्स वयण-पंकय पलोयणं मोत्तु मह इमा दिट्ठी । पंक-निवुड्डा दुब्बल गाइव्व न सक्कए गंतु ॥
इस कथा ग्रंथ में आयी हुई उपमाओं के उपमान प्रायः नवीन हैं । एक स्थान पर प्राया है कि राजविरुद्ध कार्य करने वाला व्यक्ति पाकशाला में प्राये हुए खरगोश के समान रक्षा प्राप्त नहीं कर सकता । अतः इस कथा ग्रंथ पर पूर्वाचार्यों की शैली का ऋण बहुत कम हैं । हां, कौतूहल कवि की लीलावती के समान प्रेमाख्यानों की उत्थानिकाएं अवश्य आरंभ होती हैं, पर आख्यानों की गठन स्वतंत्ररूप में ही हुई है ।
सूर्योदय, वसन्त, वन, सरोवर, नगर, राजसभा, युद्ध, विवाह, विरह, समुद्रतट, उद्यानक्रीड़ा एवं ग्रामों का सुन्दर वर्णन आया है । इस वर्णन के अवलोकन से अवगत होता है कि लेखक ने इस कथाकृति को काव्य बनाने का प्रयास किया है । इसकी शैली और रूप. कृति में पूर्वकथा-कृतियों की अपेक्षा निम्न भिन्नताएं हैं
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१. कथा की अपेक्षा महाकाव्य की शैली और वस्तु चयन । २ जीवन के विराट रूप का सांसारिक संघर्ष के बीच प्रदर्शन । ३. जीवन के व्यापक प्रभावों का पात्रों के जीवन में अंकन ।
४. कथा का प्रारंभ अन्तर्कथाओं से होकर बहुत दूर जाने पर मूलकथा से उसके सूत्र का संयोजन ।
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कथा के रूपायन में नवीन प्रयोग ।
६. अनेक रूपात्मक संवेदनाओं क एकत्र प्रदर्शन ।
७. एक ही कथाकेन्द्र की परिधि में विविध कथानकों का मार्मिक नियोजन ।
८. रागात्मक बुभुक्षा की परितृप्ति के लिए स्वतंत्र कल्पना का प्रयोग ।
६. कथारंभ करने की नई प्रणाली का श्रीगणेश ।
निर्वाण
लीलावती कथा
इस कथा ग्रंथ को जिनेश्वर सूरि ने प्रशापल्ली में वि० सं० २०८२ और १०६५ मध्य में लिखा है । यह समस्त ग्रंथ प्राकृत पद्यों में लिखा गया है । मूलकृति अभीतक अनुपलब्ध है, पर इसका साररूप संस्कृत भाषा में जिनरत्न सूरि कृत प्राप्य है । क्रोध, भाव आदि विकारों के साथ हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह-संचय आदि पापों का फल जन्म-जन्मान्तर तक भोगना पड़ता है, का विवेचन इस कथा ग्रंथ में किया गया हँ ।
कथा वस्तु और
समीक्षा
राजगृह नगरी में सिहराज नामका राजा अपनी लीलावती रानी सहित शासन करता था । इस राजा का मित्र जिनदत्त श्रावक था । इसके संसर्ग से राजा जैनधर्म का श्रद्धालु हो जाता है । किसी समय जिनदत्त के गुरु समरसेन राजगृह नगरी में श्राये । जिनदत्त साथ राजा और रानी भी मुनिराज का उपदेश सुनने के लिए गये । राजा न श्राचार्य के अप्रतिम सौन्दर्य और प्रगाध पाण्डित्य को देख श्राश्चर्य चकित हो उनसे उनका बृत्तान्त पूछा
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