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प्राचार्य कहने लगे--वत्सदेश को कौशाम्बी नारी में विजयसेन नामक राजा, जयशासन मंत्री, सर परोहित, पुरन्दर श्रेष्ठी, एवं धन सार्थवाह ये पांचों मित्रतापर्वक रहते थे। किसी समय सुधर्म नामके प्राचार्य उस नगरी में पधारे। इन प्राचार्य के दर्शन के लिए ये पांचों ही व्यक्ति गये और इन्होंने वहां प्राचार्य का उपदेश सुना । आचार्य ने पांच पापों का फल प्राप्त करने वाले व्यक्तियों की कथाएं सुनाई। हिंसा और क्रोध के । उदाहरण के लिए रामदेव नामक राजपुत्र की कथा, असत्य और मान के उदाहरण स्वरूप सुलक्षण नामक । पुत्र की कथा, चोर. और कपट के उदाहरण में वसुदेव नामक वणिक पुत्र की कथा, कुशील सेवन और मोह के उदाहरण में वजसिंह राजकुमार की कथा एवं परिग्रह और लोभ के दृष्टान्त में कनकरथ राजपुत्र की कथा कही । स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियों के विपाक वर्णन में उक्त पांचों व्यक्तियों के पूर्वभव की कथाएं बतलायीं। कथामय इस धर्मोपदेश को सुनकर वे पाचों ही विरक्त हुए और सुधर्म स्वामी के सम्मुख दीक्षित हो गये । इन्होंने घोर तपश्चरण किया। फलतः आयुक्षय के उपरान्त ये पांचों सौधर्म स्वर्ग में देव हुए। ये वहां से च्युत हो भरतक्षेत्र के विभिन्न स्थानों में उत्पन्न हुए।
रसनेन्द्रिय के विपाक वर्णन में जिस जयशासन मंत्री की कथा कही गयी है, उसका जीव मलयदेश के कुशावर्तपुर में राजा जयशेखर के यहां पुत्र हुआ और इसका नाम समरसेन रखा गया । यह समरसेन आखेट का बड़ा प्रेमी था । सदैव मृगयासक्त होकर प्राणिहिंसा में प्रवृत्त रहता था। उसका पूर्वभव का मित्र सूर पुरोहित का जीव, जो देव गति में विद्यमान था, आकर उसे सम्बोधित करता है । यह प्रतिबुद्ध हो धर्मनन्दन गुरु से दीक्षा ग्रहण करता है। ___कथा का मूल नायक सिंहराज कौशाम्बी के विजयसेन राजा का जीव है और रानी लीलावती कपट और च री के उदाहरण में वर्णित वणिक पुत्र वसुदेव का जीव है। पूर्वभव के मित्र भाव को लक्ष्यकर जयशासन मंत्री का जीव समरसेन सूरि इन्हें सम्बोधित करने पाया है । सूरि के उपदेश से प्रतिबद्ध होकर सिंहराज और रानी लीलावती ये दोनों व्यक्ति भी दीक्षा धारण कर तपश्चरण करते हैं । अन्त में ये सभी निर्वाण प्राप्त करते हैं। इस प्रकार दस व्यक्तियों के जन्म-जन्मान्तरों के कथाजाल से इसकी कथावस्तु गठित की गयी है। - इस धर्मकथा में कथापन विद्यमान है । कौतूहल गुण सर्वत्र है। क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी जीवों के स्वाभाविक चित्र उपस्थित किये गये हैं। प्रासंगिक स्थलों को पर्याप्त रोचक बनाया गया है । कथा के मर्मस्थलों का उपयोग सिद्धांतों के प्राद्यन्त निर्वाह में किया गया है । नीरसता और एकरूपता से बचने के लिए कथाकार ने दृष्टान्त और उदाहरणों का अच्छा संकलन किया है।
इस कथा ग्रंथ की शैली और कथातंत्र में कोई नवीनता नहीं है । पूर्ववर्ती प्राचार्यों कथा जाल का अनुकरण किया है । यद्यपि उदाहरण-कथाओं में आई हई अधिकांश कथाएं नवीन है। घटनाएं सीधी सरल रेखा में चलती है। उनमें घुमाव या उस प्रकार के चमत्कार का अभाव है, जो पाठक के म का स्पर्श कर उसे कुछ क्षणों के लिए सोचने का अवसर देता है । कुछ स्थानों में कथातत्त्व की अपेक्षा उपदेशतत्त्व ही प्रधान हो गया है । अतः साधारण पाठक को इसमें नीरसता की गन्ध पा सकती है ।
कथाकोष प्रकरण
इस कृति के रचयिता जिनेश्वर सूरि हैं। यह नवीन युग-संस्थापक माने जाते है। इन्होंने चैत्यवासियों के विरुद्ध आन्दोलन प्रारंभ किया और त्यागी तथा गृहस्थ दोनों प्रकार
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