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चउपन्न - महापूरिस - चरियं
जैन साहित्य में महापुरुषों की मान्यता के सम्बन्ध में दो विचार धाराएं उपलब्ध होती हैं-- एक प्रतिवासुदेवों की वासुदेवों के साथ गणनाकर ५४ इलाका पुरुष मानती है और दूसरी प्रतिवासुदेवों की गणना स्वतंत्ररूप से मानकर ६३ श्लाका पुरुष । प्रस्तुत चरित ग्रंथ विशालकाय है । इसमें चरित शैली में ५४ इलाका पुरुषों के जीवन-सूत्र ग्रथित किये गये हैं । इस चरित ग्रंथ के रचयिता श्री शीलंकाचार्य हैं । ये निवृतिकुलीन मानवर के शिष्य थे । इनके दूसरे नाम शीलाचार्य और विमलमति भी उपलब्ध होते हैं । आचार्य पद प्राप्त करने के पूर्व एवं उसके पश्चात् ग्रंथकार का नाम क्रमशः विमलमति और शीलाचार्य रहा होगा । ऐसा मालूम होता है कि शीलांक ग्रन्थकार का उपनाम है । इस ग्रन्थ के अन्त में जो प्रशस्ति उपलब्ध है, उससे भी इनके समय पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता है । पर विद्वानों ने अनेक प्रमाणों के आधार पर इसका रचनाकाल ई० सन् ८६८ निर्धारित किया है ।
इस कथा ग्रन्थ में ऋषभदेव, भरत चक्रवर्ती, शांतिनाथ, मल्लिस्वामि और पार्श्वनाथ के चरित पर्याप्त विस्तारपूर्वक वर्णित हैं । इन प्राख्यानों में कथानायकों के पूर्वभव एवं अवान्तर कथाओं का संयोजन कर इन्हें पर्याप्त सरस बनाया गया है । सुमतिनाथ, सगर चक्रवर्ती, सनत्कुमार चक्रवर्ती, सुभौमचक्रवर्ती, अरिष्टनेमि, कृष्ण, बलदेव, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती और वर्धमान स्वामी के चरितों में विविध प्रसंगों के श्राख्यानों का मिश्रण किया गया हैं । अतः ये आख्यान कथा साहित्य की दृष्टि से सरस हैं और इनमें कथातत्त्व भी पाया जाता है । अन्य चरित संक्षेप में लिखे गये हैं । कथातत्त्वों का विस्तार इनमें नहीं हो पाया है । इस ग्रन्थ में प्रधान रूप से शुभ-अशुभ कर्मबन्ध के परिणामों का दिग्दर्शन कराने के लिए चरित लिखे गये हैं ।
समराइच्चकहा और कुवलयमाला के समान इस कृति के घटना तंत्र में जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों, निदान, विकारों के प्रभाव एवं संसार विषयक आसक्तियों के विश्लेषण श्राख्यानों द्वारा किये गये हैं । वरुणवर्म कथानक और मुनिचक्र कथानक में संसार श्राकर्षण के केन्द्र, नारी की निन्दा एवं उसके विश्वासघात का विवेचन किया गया है। विजयाचार्य कथानक पर समराइच्चकहा का पूरा प्रभाव दिखलाई पड़ता है । वर्णनशैली और वस्तु निरूपण की परम्परा प्रायः समान है ।
यों तो लेखक ने अपने इस चरित ग्रंथ की रचना करने के लिए अपने से पूर्ववर्ती साहित्य से स्त्रोत ग्रहण किये हैं, पर तो भी उसने चरितों में अनेक तथ्य अपनी ओर से जोड़ दिये हैं । प्रसंगवश वर्णनों में सांस्कृतिक सामग्री भी प्रचुर परिमाण में उपलब्ध है । युद्ध, विवाह, जन्म एवं उत्सवों के वर्णन प्रसंग में अनेक बातें इस प्रकार की आई हैं, जिनमें तत्कालीन प्रथाओं और रीति-रश्मों का पर्याप्त निर्देश वर्त्तमान है । चित्रकला, संगीतकला एवं पुष्पमाला के गुच्छों में हंस, मृग, मयूर, सारस एवं कोकिल आदि की प्राकृतियों का गुम्फन किये जाने का निर्देश है । "
चरित्रों में उदात्त तत्त्व उपलब्ध है । परिसंवादों में अनेक नंतिक तथ्यों का सन्निवेश हुआ है । उदाहरण के लिए एक संवाद उद्धृत किया जाता है-
धन सार्थवाह के एक प्रधान कर्मचारी से एक वणिक ईर्ष्याविश पूछता है कि तुम्हारे सार्थवाह के पास कितना धन है ? उसमें कौन-कौन गुण हैं ? वह क्या दे सकता है ?
१-- कुसुमकरंडयाओ हंस मिय- मयूर - सारस- कोइल कलरूव पविण्णलपरियप्पियं सयलकुसुमसामिद्ध समिद्धं- - चउ० म०, पृष्ठ २११ । ५--२२ एड०
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