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वहां के राजा जितारि के राजपुरोहित थे । दीक्षाग्रहण करने के पश्चात् जैन साधु के रूप में इनका जीवन राजपूताना और गुजरात में विशेष रूप से व्यतीत हुआ। प्रभावक चरित्र से अवगत होता है कि इन्होंने पोरवाल वंश को सुव्यवस्थित किया और उसे जैन धम में दीक्षित कर आत्मकल्याण में लगाया । नेमिनाथ चरित द्वारा ज्ञात होता है कि पो वाल जाति की उत्पत्ति श्रीमाल में हुई । इस जाति का निमाय नाम का वीर पुरुष वनराज द्वारा प्रभावित होकर उसको नयी राजधानी अनहिलपट्टन में बस गया और वहां उसने विद्याधर गच्छ के लिए ऋषभदेव का एक मन्दिर बनवाया । प्रधान रूप से हरिभद्र सूरि राजपूतान और गुजरात में ही परिभ्रमण करते रहे । यों तो इनका बिहार समग्र भारतवर्ष में हुआ था। समराइच्चकहा में पाए हुए नगरों और प्रांतों के नामों से ज्ञात होता है कि हरिभद्र सूरि दक्षिण भारत नहीं गये थे। इसमें उत्तर भारत के ही नगरों और स्थानों के नाम पाते है।
धर्म परिवर्तन
प्राचार्य हरिभद्र के जीवन प्रवाह को बदलने वाली घटना उनके धर्म परिवर्तन की है । इनकी यह प्रतिज्ञा थी कि "जिसका वचन न समझं, उनका शिष्य हो जाऊं ।" एक दिन राजा का मदोन्मत्त हाथी पालानस्तम्भ को लेकर नगर में दौड़ने लगा। हाथी ने अनेक लोगों को कुचल दिया । हरिभद्र इसी हाथी से बचने के लिए एक जैन उपाश्रय में प्रविष्ट हुए। यहां याकिनी महत्तरा नामकी साध्वी को निम्न गाथा का पाठ करते हुए सुनाः--
चक्कीदुर्ग हरिपणगं चक्कोण केसवो चक्की ।
केसव चक्की केसव दु चक्की केसव चक्की य॥ इस गाथा का अर्थ उनकी समझ में नहीं आया और उन्होंने साध्वी से उसका अर्थ पूछा। साध्वी ने उन्हें गच्छपति प्राचार्य जिनभट के पास भेज दिया। प्राचार्य से अर्थ सुनकर वे वहीं दीक्षित हो गये और बाद में अपनी विद्वत्ता तथा श्रेष्ठ प्राचार के कारण प्राचार्य ने उन्हें ही अपना पट्टधर प्राचार्य बना दिया ।
जिस याकिनी महत्तरा के निमित्त से हरिभद्र ने धर्म परिवर्तन किया था, उसको उन्होंने अपनी धर्ममाता के समान पूज्य माना है और अपने को याकिनीसुनु कहा है । यद्यपि हरिभद्र के धम परिवर्तन की घटना का उल्लेख गणधरसार्धशतक में नहीं मिलता है, फिर भी सभी विद्वान् इसे सत्य स्वीकार करते है । याकोबी का कहना है--"प्राचार्य हरिभद्र को जैनधर्म का गंभीर ज्ञान रखकर भी अन्यान्य दर्शनों का इतना विशाल और तत्त्वग्राही ज्ञान था, जो उस काल में एक ब्राह्मण को ही परम्परागत शिक्षा के रूप में प्राप्त होन: स्वाभाविक था, अन्य को नहीं ।
भवविरह सूरि और विरहांक कवि का मर्म
प्राचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रंथों की अन्तिम गाथा या श्लोक में भवविरह अथवा विरहांक कवि शब्द का प्रयोग किया है । इन शब्दों के पीछे क्या रहस्य है, इसका विवेचन
(१) याकोवो द्वारा लिखित समराइज्चकहा की प्रस्तावना, प० ८ । ४--२२ एड०
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