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________________ प्रबन्धकोश और कहावली इन दोनों ग्रंथों में मिलता है । प्रभावकचरित और प्रबन्धकोश में हरिभद्र के सम्बन्ध में जो कथा आती है, उसका सार निम्न प्रकार है:-- प्राचार्य हरिभद्र के दो भानजे शिष्य हंस और परमहंस थे। ये बौद्धधर्म और न्याय की शिक्षा ग्रहण करने के लिए चितौड़ में बौद्धाचार्य के पास गये। वहां जैन होने के भेद खुल जाने पर हंस तो, उनके हाथ वहीं मारा गया और परमहंस भी उसी तरह समाप्त हो गया। इससे प्राचार्य को अत्यन्त सन्ताप हा और इन शिष्यों की चिरस्मति के रूप में उन्होंने विरह शब्द अपना लिया। कहावलि में भी शिष्यों के मारे जाने की बात आती है। परन्तु नाम जिनभद्र और वीरभद्र दिये हैं, जो उपयुक्त प्रतीत होते हैं । उनके "भवविरहसूरि" करके लिखने और प्रसिद्ध होने की बात "कहावलि" में निम्न प्रकार आती है । मुनिकल्याण विजयजी आदि विद्वानों ने इसे प्राचीन माना है ।। हरिभद्र जिनभट प्राचार्य के पास दीक्षित होने गये और उनसे धर्म का फल पूछा । प्राचार्य ने धर्म के दो भेद बतलाए--सस्पृह (निदान सहित, सकाम) और निःस्पृह (निष्काम) । सस्पृह कर्म का आचरण करने वाला स्वर्गादि सुख और निःस्पृह धर्म का आचरण करने वाला भवविरह--मुक्ति, जन्म-मरण से छुटकारा प्राप्त करता है । हरिभद्र ने भवविरह को उपादेय समझकर ग्रहण किया । भोजन या अन्य अवसरों पर जो भी आकर उन्हें नमस्कार, वन्दना करता, उसे वं "भवविरह करने में उद्यमवन्त होओ" यह आशीर्वाद देते। भक्त लोग "भवविरहसूरि" चिरंजीवी हों, कहते हुए चले जाते । इस प्रकार "भवविरह" अत्यन्त प्रिय होने से इन्होंने स्वयं भवविरह शब्द को ग्रहण किया और भवविरहसूरि या विरहांक कवि के नाम से प्रसिद्ध हुए। ___ कहावलि की अन्य सूचनाओं के आधार पर हरिभद्र का जन्मस्थान "पिवंगुई" नाम की कोई ब्रह्मपुरी लिखा है। माता का नाम गंगा और पिता का नाम शंकरभट्ट मिलता है। इनके द्वारा १,४००, १,४४० या १,४४४ प्रकरणों के लिखे जाने की सूचना भी मिलती है। हरिभद्र की रचनाएं युगप्रधान होने की दृष्टि से हरिभद्र की ख्याति उनकी अगणित साहित्यिक कृतियों पर आश्रित है । जन-साहित्य में यह बहुत ही मेधावी और विचारक लेखक है । इनके धर्म, दर्शन, न्याय, कथा-साहित्य एवं योग, साधनादि सम्बन्धी विभिन्न विषयों पर गम्भीर पांडित्यपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध है। यह आश्चर्य की बात है कि समराइच्चकहा और धूर्ताख्यान जैसे सरस, मनोरंजक आख्यान प्रधान ग्रन्थों का रचियता अनेकान्त जयपताका जैसे क्लिष्ट न्याय ग्रन्थ का रचयिता हो सकता है। एक ओर हृदय की सरसता टपकती है तो दूसरी ओर मस्तिष्क की प्रौढ़ता। हरिभद्र की साहित्य प्रतिभा के मूलतः दो वर्ग किये जा सकते हैं--भाष्य, चूणि और टीका के रूप में तथा मौलिक ग्रन्थ रचना के रूप में। हरिभद्र के पहले आगम ग्रन्थों के लिखे गये भाष्य, चूणि और विवृत्तियां प्राकृत भाषा में ही है । हरिभद्र ने अपने पूर्वजों के ग्रन्थों से लाभान्वित होकर आगमसूत्र ग्रन्थों पर भाष्य, चूणि और वृत्तियां संस्कृत भाषा में लिखीं। इनकी अपनी एक विशेष शैली है, ये अर्थ संस्कृत में लिखते हैं, किन्तु कथाओं तथा चूणियों के अन्य भागों को प्राकृत में ही छोड़ देते हैं। हमारा यह विश्वास है कि हरिभद्र से पहले पागम ग्रन्थों की व्याख्या संस्कृत में नहीं लिखी गई। हरिभद्र ने जिस शैली का आविष्कार किया, उसका वाद में और अधिक विकास हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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