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(५) ललित विस्तरा
( ६ ) आवश्यक सूत्र टीका प्रशस्ति २
उपर्युक्त ग्रंथ प्रशस्तियों में से अन्तिम ग्रंथ प्रशस्ति ही अधिक उपयोगी है । इसके आधार पर प्राचार्य हरिभद्र के जीवन पर निम्न प्रकाश पड़ता है ।
हरिभद्र श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्याधर गच्छ के शिष्य । गच्छपति आचार्य का नाम जिनभट्ट और दीक्षागुरु का नाम जिनदत्त तथा धर्ममाता साध्वी ( जो इनके धर्मपरिवर्तन में मूल निमित्त हुई) का नाम याकिनी महत्तरा था ।
आचार्य हरिभद्र की रचनाओं को अध्ययन से ज्ञात होता है कि ये बहुमुखी, प्रतिभाशाली और भारतीय दर्शन के अद्वितीय मर्मज्ञ थे । इनके व्यक्तित्व में दर्शन, साहित्य, पुराण और धर्म आदि का सम्मिश्रण हुआ था । इन्होंने बौद्ध-न्याय का विशेष रूप से अध्ययन किया था । दिङ्नाग को "न्याय प्रवेश" पर विद्वत्तापूर्ण टीका का लिखा जाना इस बात का प्रमाण है कि ये इस न्याय के विशेषज्ञ थे । उपर्युक्त प्रशस्तियों से इनके जीवन के सम्बन्ध में निम्न तथ्य हो प्रत्यक्ष होते हैं:
१. जिनभट की परम्परा में जिनदत्त के शिष्य थे ।
२. याकिनी साध्वी के उपदेश से जैनधर्म में दीक्षित हुए थे । अतः उसे अपनी धर्ममाता कहा है ।
३. इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की थी ।
श्राचार्य हरिभद्र ने अपने जीवन के संबंध में जितना लिखा है, उससे कहीं अधिक उनके जीवन के सम्बन्ध में उनके समकालीन लेखकों ने लिखा है । पर साथ ही यह भी उतना ही सत्य है कि ऐतिहासिक तथ्य दन्तकथाओं और पौराणिक कथाओं में प्रविष्ट होकर प्रशंसात्मक विचित्र कल्पित बातों के मिश्रण से कुछ अंशों में अविश्वसनीय बन गए हैं । निम्नांकित रचनाओं में हरिभद्र सूरि के जीवनवृत्त सूत्र उपलब्ध होते हैं
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१. मुनिचन्द्र रचित "उपदेशपद टीका प्रशस्ति" ( ११७४ ई० ) २. जिनदत्त का " गणधरसार्धशतक" ( ११६८ - ११२१ ई० )
३. प्रभाचन्द्र का " प्रभावक चरित" (वि सं० १३३४ )
४. राजशेखर "प्रबन्धकोश" अथवा चतुर्विंशति प्रबन्ध
५. सुमतिगणि “गणधरसार्धशतक वृहट्टीका ( वि० सं० १२८५ ) ६. भद्रेश्वर कहावली ।
उपर्युक्त प्रथम पांच सूत्रों के अनुसार प्राचार्य हरिभद्र का जन्म चित्रकूट चित्तौड़राजस्थान में हुआ था । ये जन्म से ब्राह्मण थे और अपने अद्वितीय पांडित्य के कारण
- हरिभद्रसूरिचरितम् पृ० ७
२--कृतिः सितम्बराचार्य जिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्य जिनदत्त शिष्य साधर्म्यतो जाइणीमहत्तरासूनोरल्पमते राचार्य हरिभद्रस्य । —पिटर्सन थर्ड रिपोर्ट पृ० २०२ ।
१ - - कृतिधर्मतो याकिनी महत्तरासूनोराचार्य हरिभद्रस्यपा० हि०
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