SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५ शंकराचार्य ने जैन दर्शन के स्याद्वादसिद्धांत - सप्तमंगी न्याय का खंडन भी किया है । इनको नाम का उल्लेख अथवा इसके द्वारा किये गये खंडन में प्रदत्त तर्कों का प्रत्युत्तर सर्वतो-. मुखी प्रतिभावान् हरिभद्र ने नहीं दिया। इसका स्पष्ट अर्थ है कि आचार्य हरिभद्र शंकर के उद्भव के पहले ही स्वर्गस्थ हो गये थे--अन्यथा वे किसी-न-किसी रूप में उनका अवश्य उल्लेख करते । अतएव निश्चित है कि हरिभद्र का समय शंकराचार्य से पहले है । प्रो० श्रभ्यंकर ने हरिभद्र के ऊपर शंकराचार्य का प्रभाव बतलाया है और उन्हें शंकराचार्य का पश्चातवर्ती विद्वान् मानने का प्रस्ताव किया है । पर हरिभद्र के दर्शन संबंधी ग्रंथों का आलोकन करने पर यह कथन निस्सार प्रतीत होता है । सामान्यतः अन्य सभी विद्वान् हरिभद्र को शंकराचार्य का पूर्ववर्ती मानते हैं । स्व० पं० महेन्द्र कुमार जी ने हरिभद्र के षड्दर्शन समुच्चय ( श्लो० ३०) में जयन्त भट्ट की न्यायमंजूरी कर गम्भीरगजितारंभ, निभिन्नगिरिगह्वरा । रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनत्विषः ॥ त्वं गत्तडिल्लतासंग पिशंगीतुंगविग्रहा । वृष्टिं व्यभिचरन्तीह नंवं प्रायाः पयोमुचः ॥ इस पद्य के द्वितीय पाद को जैसा-का-तसा सम्मिलित कर लिया गया है और पं० महेन्द्र कुमार जी के अनुसार जयन्त की न्यायमंजरी का रचनाकाल ई० सन् ८०० लगभग आता है । अतः उक्त श्लोक जयन्त की न्यायमंजरी का है, तब हरिभद्र के समय की उत्तर सीमा ई० सन् ८०० के लगभग होनी चाहिए । यतः उक्त श्लोक जयन्त की न्यायमंजरी का है तब हरिभद्र के समय की उत्तर सीमा ई० सन् ८१० तक लम्बानी होगी, तभी वे जयन्त की न्यायमंजरी को देख सके होंगे । हरिभद्र का जीवन लगभग नब्बे वर्षों का था, अतः उनकी पूर्वावधि ई० सन् ७२० के लगभग होनी चाहिए' । Jain Education International इस मत पर विचार करने से दो आपत्तियां सामने आती हैं । पहली बात तो यह है कि जयन्त ही न्यायमंजरी के उक्त श्लोक के रचयिता हैं, यह सिद्ध नहीं होता है, यतः उनके ग्रंथ में अन्यान्य श्राचार्य और ग्रंथों के उद्धरण वर्तमान है । मिथिला विद्यापीठ के डॉo ठाकुर ने न्यायमंजरी संबंधी अपने शोध निबन्ध में सिद्ध किया है कि वाचस्पति मिश्र ( ई० सन् ८४१ ) के गुरु त्रिलोचन थे और उन्होंने एक न्यायमंजरी की रचना की थी । संभवतः जयन्त ने भी उक्त श्लोक वहीं से लिया हो, अथवा अन्य किसी पूर्वाचार्य का ऐसा कोई दूसरा न्याय ग्रंथ रहा हो, जिससे आचार्य हरिभद्र सूरि और जयन्त भट्ट इन दोनों ने १- विंशति विंशिका - - प्रस्तावना । २ -- न्यायमंजरी विजयनगर संस्करण, पृ० १२६ । ३ - सिद्धिविनिश्चय टीका की प्रस्तावना, पृ० ५३-५४ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy