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________________ ४४ और गुप्तों के राज्यकाल का प्रमाण २५५ वर्ष है । इस उल्लेख के अनुसार २४२ - ( ५६५७) -- १८६-१८५ ई० के लगभग गुप्त संवत् का आरंभ हुआ । अनन्तर गुप्तकाल के ५८५ वर्षजोड़ द ेने पर ई० सन् ७७०-७७१ के लगभग श्राचार्य हरिभद्र का स्वर्गारोहण समय आता है । इसकी पुष्टि मुनि जिनविजय के द्वारा निर्धारित समय से भी होती है । ' प्राचार्य हरिभद्र के समय को उत्तरी सीमा का निर्धारण कुवलयमाला के रचयिता दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि के उल्लेख द्वारा हो जाता है । उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला की प्रशस्ति में इस ग्रंथ की समाप्ति शक संवत् ७०० में बतायी है और अपने गुरु का नाम हरिभद्र कहा है । सो सिद्धते गुरू जुत्ती - सत्थे हि जस्स हरिभद्दो । बहु सत्थ- गंथ - वित्थर पत्थरिय पयड - सव्वत्थो । इससे स्पष्ट है कि शक संवत् ७०० के बाद हरिभद्र का समय नहीं हो सकता है । तात्पर्य यह है कि हरिभद्र आठवीं शती के उत्तरार्ध में अवश्य जीवित थे । उपमिति भव प्रपंच कथा के रचयिता सिद्धर्षि ने अपनी कथा की प्रशस्ति में प्राचार्य हरिभद्र को अपना गुरु बताया है । विषं विनिर्धूय कुवासनामयं व्यचीचरद्द यः कृपया मदाशये । अचिन्त्यवीर्येण सुवासनासुधां नमोस्तु तस्मै हरिभद्रसूरये ॥ अर्थात् - - हरिभद्र सूरि ने सिद्धर्षि के कुवासनामय मिथ्यात्वरूपी विष का नाशकर उन्हें अत्यन्त शक्तिशाली सुवासनामय ज्ञान प्रदान किया था तथा इन्होंके लिए चंत्यवन्दन सूत्र की ललित विस्तरा नामक वृत्ति की रचना की थी । उपमित-भवप्रपंचकथा के उल्लेखों को देखने से ज्ञात होता है कि हरिभद्रसूरि सिद्धर्षि के साक्षात् गुरु नहीं थे, बल्कि परम्परया गुरु थे । प्रो० अभ्यंकर ने इन्हें साक्षात् गुरु स्वीकार किया है, परन्तु मुनि जिनविजय ने प्रशस्ति के "अनागत" शब्द के श्राधार पर उपर्युक्त निष्कर्ष ही निकाला है । इनका अनुमान है कि आचार्य हरिभद्र रचित ललितविस्तरा वृत्ति के अध्ययन से सिद्धर्षि का कुवासनामय विष दूर हुआ था । इसी कारण सिद्धषि न े उसके रचयिता को स्वभावतः सदृष्टिविधायक धर्मबोधक गुरु के रूप में स्मरण किया है । अतएव स्पष्ट है कि प्रो० अभ्यंकर ने हरिभद्र को सिद्धर्षि का साक्षात् गुरु मानकर उनका समय वि० सं० ८०० -- ६५० माना है, वह प्रामाणिक नहीं है और न उनका यह कहना ही यथार्थ है कि कुवलयमाला में उल्लिखित शक संवत् ही गुप्त संवत् है । Jain Education International सामान्यतः मुनि जिनविजय जी ने आचार्य हरिभद्र को शंकराचार्य का पूर्ववर्ती माना है । सभी विद्वान् शंकराचार्य का समय ई० सं० ७८८ से ८२० तक स्वीकार करते हैं । श्राचार्य हरिभद्र ने अपने से पूर्ववर्ती प्रायः सभी दार्शनिकों का उल्लेख किया है । १ - - विशेष के लिए देखें-- अनेका० ज० भाग २ की प्रस्तावना | २ - कु० प्र० ४३० पृ० २८२ । ३ --- हरिभद्राचार्यस्य समयनिर्णयः, पृ० ६ पर उद्धृत । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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