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________________ उक्त श्लोक लिया हो। यह संभावना तब और भी बढ़ जाती है, जब कि कुछ प्रकाशित तथ्यों से जयन्त कीन्यायमंजरी का रचना काल ई० सन् ८०० के स्थान पर ई० सन् ८६० आता है। ___जयन्त ने अपनी न्यायमंजरी में राजा अवन्तिवर्मन (ई० सन् ८५६-८८३) के समकालीन ध्वनिकार और राजा शंकर वर्मन द्वारा (ई० ८८३- ९०२) अवैध घोषित किये गये नीलाम्बर वृत्त का उल्लेख किया है। इन प्रमाणों को ध्यान में रखकर जर्मन विद्वान् डॉ० हेकर ने यह निष्कर्ष निकाला है कि शंकर वर्मन के राज्य काल में लगभग ८६० ईस्वी के आस-पास जब जयन्त भट्ट ने न्यायमंजरी की रचना की होगी, तब वह ६० वर्ष के वृद्ध पुरुष हो चुके होंगे। उपर्युक्त तथ्यों के प्रकाश में स्व० पं० महेन्द्र कुमार जी का यह मत कि जयन्त की न्यायमंजरी की रचना लगभग ८०० ई० के आसपास हुई होगी, अप्रमाणित सिद्ध हो जाता है और इस अवस्था में प्राचार्य हरिभद्र के काल की उत्तरावधि प्रामाणिक नहीं ठहरती । प्राचार्य हरिभद्र ने अपने षड्दर्शन में उक्त श्लोक न्यायमंजरी से लिया है, यह मानने पर उन्हें कम-से-कम ई० ६०० तक जीवित रहना चाहिये, तभी वे जयन्त को न्यायमंजरी देख सके होंगे। हरिभद्र की पूर्वावधि उक्त तथ्य के अनुसार ई० सन् ८०० के आसपास और और उत्तरावधि ६०० ई० के आसपास आती है । इस अवधि के मानने पर आचार्य हरिभद्र कुवलयमाला के रचयिता उद्योतन सूरि के गुरु नहीं हो सकते । उपर्युक्त बातों का विचार करने से यही उचित समाधान प्रतीत होता है कि प्राचार्य हरिभद्र और जयन्त इन दोनों ने ही किसी एक ही पूर्ववती रचना से उक्त श्लोक के द्वितीय पाद अथवा पूर्ण श्लोक उद्धृत किये हैं। हरिभद्र के समय निर्णय में विद्वानों ने मल्लवादी के समय का विचार किया है। सटीक नयचक्र के रचयिता मल्लवादी का निर्देश हरिभद्र ने अनेकान्त जयपताका की टीका में किया है । मल्लवादी का समय भ्रान्तिवश वीरनि० सं० ८८४ और वि० सं० ४१४ माना जाता रहा है, यह ठीक नहीं है । मुनि जंबूविजय ने सटीक नयचक्र का परायण करके उसका विशेष परिचय श्री प्रात्मानन्द प्रकाश (वर्ष ४५, अंक ७) में प्रकट किया है । मुख्तार साहब ने उस पारायण का अध्ययन कर लिखा है--"मालूम होता है कि मल्लवादी ने अपने नयचक्र में पद-पद पर वाक्यपदीय" ग्रंथ का उपयोग ही नहीं किया, बल्कि उसके कर्ता भर्तृहरि का नामोल्लेख और भर्तृहरि के मत का खंडन भी किया है । इन भर्तृहरि का समय इतिहास में चीनी यात्री इत्सिंग के यात्रा विवरणादि के अनुसार ई. सन ६०० से ६५० (वि० सं० ६५७ से ७०७) तक माना जाता है, क्योंकि इत्सिंग ने जब सन् ६९१ में अपना यात्रा वृतांत लिखा, तब भर्तृहरि का देहावसान हुए ४० वर्ष बीत चुके थे। ऐसी हालत में मल्लवादी जिनभद्र से पूर्ववर्ती नहीं कहे जा सकते। डॉ० पी० एल० वैद्य ने न्यायावतार की प्रस्तावना में मल्लवादी के समय की इस भूल अथवा गलती का कारण "श्री वीर विक्रमात्" के स्थान पर "श्री वीरसंवत्सरात" पाठान्तर का हो जाना सुझाया है । डॉ० वैद्य का यह सुझाव बहुत कुछ अंशों में बुद्धिसंगत प्रतीत होता है । अतः उक्त प्रकाश में हरिभद्र का समय वि० सं० ८८४ तक माना जा सकता है । १--बिहार रिसर्च सोसाइटी जर्नल भाग खंड ४,१६५५ में डॉ० ठाकुर का निबन्ध । २--देखें-"न्यायमंजरी स्टडीज' नामक पूना औरियन्ट लिस्ट (जनवरी-अप्रिल, १९५७) पृ० ७७ हर डॉ० एच० मरहरी का लेख तथा उसपर पादटिप्पण क्रमांक-२ । ३--जन-साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, पृ० ५५१-५५२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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