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________________ ४२ निष्ठा का दूसरा रूप है कथाओं के वर्गीकरण धर्मकथा, कामकथा, अर्थकथा, खंडकथा, परिकथा, सकलकथा एवं मिश्रकथाओं के नाम, लक्षण और प्रयोग तथा कथानक रूढ़ियों का बहुल प्रयोग और लोककथाओं का अभिजात्य कथाओं के रूप में परिवर्तन । कथा के सभी प्रमुख तत्त्वों--कौतूहलादि का सन्निवेश इस युग की एक अन्य कथाचेतना है । कथा, चरित्र और उद्देश्य को अन्विति इसी निष्ठा का परिणाम है, जो इस युग के कथाकारों की स्वाभाविक सजगता से निष्पन्न है । कथाओं में पर्याप्त सफलता के साथ स्थानीय रंग (लोकल कलरिंग) और चित्र-ग्राहिणी प्रतिभा का योग इस निष्ठा का दूसरा परिणाम है । जहां साहित्य के सामाजिक दायित्व का मौलिक प्रश्न पहले-पहल मौलिक रूप में उपस्थित होता है । समाज के विविध अंगों को लेकर कथानकों में वैविध्य का निर्माण और उस विविधता द्वारा कथा की पटभूमि बुनने का कार्य--इस निष्ठा की योजना का एक मानदंड है । कथा के साथ समस्या को उपस्थित करना, इस युग की एक निष्ठागत प्रवृत्ति रही हैं, जिससे इस युग की कथाओं का उपयोगितावाद रसग्रहण करता है । जीवन संस्कार की बात कहना ही उपदेश की शैली में इन कथाओं की समस्यामूलकता है । कथासाहित्य की विविध विधाओं के सम्मिश्रण द्वारा इस निष्ठा का अन्तिम रूप बनता है, जहां पहुंच कर यह निष्ठा अपनी युगीन पूर्णता को प्राप्त करती है । इस युग का श्रेष्ठ कथाकार हरिभद्र है । इनकी फुटकर प्राकृत कथाओं के अतिरिक्त समराइच्च कहा और धूर्ताख्यान ये दो विशालकाय कथाग्रंथ उपलब्ध है । अतएव सर्वप्रथम हरिभद्र के समय, जीवन-परिचय और रचनाओं के संबंध में संक्षिप्त प्रकाश डालना प्रावश्यक है। हरिभद्र का समय दंडी, सुबन्धु और बाण भट्ट की प्रौढ़ संस्कृत गद्य शैली को प्राकृत भाषा में अभिनव कलात्मक रूप प्रदान करने वाले दार्शनिक, कथाकार और व्याख्याकार के स प.क्त व्यक्तित्व के पुंजीभूत हरिभद्र के समय की सीमा निर्धारित करने के पहले हमें यह विचार कर लेना है कि जैन-साहित्य परम्परा में हरिभद्र नाम के कितने व्यक्ति हुए हैं और उनमें से समराइच्चकहा तथा धूर्ताख्यान के रचयिता कौन से हरिभद्र है ? ईस्वी सन् को चौदहवीं शताब्दी तक के उपलब्ध जैन-साहित्य में हरिभद्र नाम के पाठ आचार्यों का उल्लेख मिलता है। इनमें समराइच्च कहा और धूर्ताख्यान प्रभृति प्राकृत कथा ग्रंथों के रचयिता प्राचार्य हरिभद्र सबसे प्राचीन हैं । ये हरिभद्र "भवविरहसूरि" और "विरहांककवि" इन दो विशेषणों से प्रख्यात थे । इन्होंने अपनी अधिकांश रचनाओं में "भवविरह" सामासिक पद का प्रयोग किया है। कुवलयमाला' के रचयिता उद्योतनसूरि (७०० शक) ने इन्हें अपना प्रमाण और न्याय पढ़ाने वाला गुरु कहा है । उपमितभव प्रपंचकथा के रचयिता सिद्धषि (६०६ ई०) ने “धर्मबोधकरोगुरुः" रूप में स्मरण किया है। मुनि जिनविजय जी ने अपने प्रबन्ध में लिखा है--"एतत्कथनमवलम्ब्य व राजशेखरण प्रबन्धकोष, मनिसुन्दरेण उपदेशरत्नाकर, रत्नशेखरेण च श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ती, सिद्धर्षि १--अनेकान्त जयपताका भाग २ भूमिका, पृ० ३०।। २-जो इच्छइ भव-विरहं भवविरहं को ण वंदए सुयणो । समय-सय-सत्थ-गुरुणो समरमियंका कहा जस्स ।।--कु०अ० ६ पृ० ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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