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________________ ४१ की सिद्धि तथा पुण्य-पाप के फलों का निरूपण पूर्वयुग की अपेक्षा नयो शैली में किया गया । कथा और आख्यायिका की दो पूर्व शैलियों के आधार पर लिखी गयी रसबद्ध कथाएं, शृंगार, करुण, वीभत्स, वीर और शान्तरस का विश्लेषण प्रस्तुत करने वाली कथाएं; क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह आदि विकारों के दुष्परिणाम को व्यक्त करने वाली प्रौढ़ शैली को रोचक कथाएं पुराणों को असंभव और मिथ्या मान्यताओं का निराकरण करने वाली तर्कपूर्ण दृष्टान्त कथाएं; विस्तृत वर्णन और संवाद प्रधान कथाएं ; अलौकिक और अद्भुत घटनाओं पर आधारित कथाएं; वाक्कौशल, प्रश्नोत्तर, उत्तर-प्रत्युत्तर, प्रहेलिका, गीत, प्रगीत, चचरी, गाथा आदि विभिन्न शैलियों पर निबद्ध कथाएं हरिभद्र यगीन कथा साहित्य की विस्तृत व्यवस्थामूलक कथा-योजना के विविध विन्यास है। कथानकों का विस्तार और वैविध्य, चरित्रांकन की प्रादर्शमूलक दृष्टि, कर्म के त्रिकाल-बाधित नियम को सर्वव्यापकता और सर्वानुमयता की सिद्धि प्रदर्शित करने वाली धार्मिक और उपयोगिता-वादी दृष्टि एवं प्रसंगवश कथाओं में तत्कालीन सामाजिक रीति-रिवाज, प्राचार-व्यवहार, जन-स्वभाव, राजतंत्र, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं का निरूपण तथा विश्लेषण करने वाली दृष्टि भी पूर्णतया वर्तमान है, जो इसकी संघात उपस्थित करने वाली एकाग्रता और सजगता की परिचायिका है । ) (कथानकों की विविधता एवं दृष्टि सम्पृक्ता के साथ शिल्प और रूप को विविधता तथा प्रयोग इस युग की दूसरी बड़ी प्रवृत्ति है । यह प्रवृत्ति इसलिए नवीन है कि कथावस्तु के साथ एक अभूतपूर्व संगति के रूप में आयी है । तरंगवती कथा के पश्चात् जो प्रवृत्ति लुप्त हो गई थी, वह पुनः प्रकट होने लगी है । मूल कथा के साथ अवान्तर और का कलात्मक संश्लेष इस यग की पहली चेतना है। आधिकारिक और प्रासंगिक कथाओं में अंग-अंगीभाव का रहना इस युग की चेतना का ही फल है ।(मूल कथा को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए ही अवान्तर या उपकथाओं का जाल घटित किया गया है । (कथा या आख्यायिकाओं में धर्मकथा और प्रबन्धकाव्य के गुणों का समावेश इस शिल्प को दूसरी विशेषता है (आख्यान काव्यों की कथा के भीतर कथा और उसके भीतर उपकथा और स्थापत्य की शैली का उज्ज्वलतम निदर्शन है ।) यह इस युग की तीसरी शिल्पगत प्रवत्ति है। इस स्थापत्य चेतना में घटनामों की निश्चित श्रृंखला, ब्योरेवार वर्णन, घटनाओं की उपचार वक्रता, पर्यायवक्रता प्रादि प्रवृत्तियां शामिल हैं। कथा प्रसंगों में आवश्यक संगति बनाये रखना, असंभव या दैवी बातों को भी संभव या लौकिक रूप में रखना, कथानक या घटनाओं की संघटना में सजीवता और स्वाभाविकता बनाये रखना इस युग के कथाकारों का युगधर्म रहा है । (शिल्प के साथ कथात्मक शैली को दुहरी चेतना का विकास भी इस युग की एक सामान्य प्रवृत्ति है। इन विभिन्न शैलियों में अनेक रूप और संस्कृत के दशकुमार, कादम्बरी और वासवदत्ता इन तीनों ग्रन्थों की शैलियों और शिल्प प्रवृत्तियों का परिष्कृत रूप इस युग के प्राकृत कथा-साहित्य में वर्तमान है ) अलंकृत भाषा शैली, श्लेषमय समस्यन्त पदावली, प्रसंगानुकूल और कर्कश शब्दों का व्यवहार, दीर्घकाय वाक्य एवं अनूठी कल्पना इस युग की एक प्रवृत्ति रही है । (इस युग की सर्वप्रमुख विशेषता और प्रवृत्ति है-कथा को निष्ठा का विकास निष्ठा का अर्थ है कथासाहित्य को एक पूर्ण, समर्थ साहित्यिक विधा मानकर उसकी व्यवस्था को चेतना । इस निष्ठा का पहला रूप है व्यंग्य और हास्य को सूक्ष्मता का समाहार तथा पालोचनात्मक दृष्टि का समन्वय । व्यंग्य और हास्य में धार्मिक उपयोगितावाद से भिन्न एक विशुद्ध कलात्मक उपयोगितावाद की स्थापना, उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धियां और मनोरंजन के साथ धर्म तत्त्व की प्राप्ति आदि सम्मिलित है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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