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________________ . ४० ङ--हरिभद्र युगीन प्राकृत कथा-साहित्य हरिभद्र युगीन प्राकृत कथा साहित्य के विस्तृत धरातल और चेतना क्षेत्र को लक्ष्य कर हम इसे पूर्व की चली पाती सभी कथात्मक प्रवृत्तियों का "संघातयुग" कह सकते हैं। प्रवृत्तियों के संघात के अवसर अर्थात् काल और उनके सम्मिलन बिन्दु की अपनी विशेषताएं होती है । संघात का कार्य नितान्ततः व्यवस्था का कार्य है । इस व्यवस्था के साफल्य पर ही उस "संघात" की कोटि निर्भर करती है । एक ऐसी व्यवस्था या आधार, जिस पर संघात की अनेक कोटियां बन सके, कथासाहित्य के लिए अधिक उपादेय और संगत मानी जानी चाहिए, यतः उनमें वर्गीकरण और असम्पृक्त-पृथक-पृथक सामान्य धाराओं के निरूपण की सुविधा रह सकती है। इस अर्थ में किसी भी साहित्यिक विधा की प्रवृत्तियों का संघात रासायनिक या द्रव्यमूलक संघात से भिन्न होता है । रासायनिक संघात में दो तत्त्व मिलकर सर्वथा एक नये तत्व का निर्माण कर देते हैं, जो प्रकृति, कार्य और द्वन्द्व में अपने पूर्व रूप से भिन्न पड़ जाता है । प्रवृत्तियों का संघात ऐसा नहीं होता । संघात में रहने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति, जो एक तत्व, धारा या सत्ता है, अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती है और उस नयी उद्भावना में अपना ऐसा अंश रखती है, जो उस संघात का प्रतिफल है। प्रवृत्तियों के संघात को हम उद्भावना के लिए आवश्यक शर्त मान सकते है। प्रवृत्तियां इकट्ठी होकर जब मिलती है, तभी नयी उद्भावनाएं होती हैं। इन उद्भावनात्रों की मौलिकता और नवीनता काव्य या साहित्य के लिए नये रसबोध की धरती तैयार करती है नयी दष्टि का निर्माण करती है और किसी विशेष विधा की सजन प्रक्रिया और आधार फलक में नये मोड़ और चुनाव की संभावनाओं को दृढ़ करती हैं। उपर्युक्त समस्त कथन हरिभद्रकालीन कथा साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों के लिए सत्य है । इस युगीन कथासाहित्य के साथ जिन दृढ़ संभावनाओं का विकास होता है, बे एक प्रकार से अपने संभार और संगठन में एक निश्चित कथाधारणा को व्यक्त करती है। कथा के संबंध में एक स्वतंत्र धारणा का बनना इस युग के विकास की नयी परम्परा है । हरिभद्र युगीन कथासाहित्य की उपर्युक्त धारणा में है--वस्तु और शिल्प का समन्वय । विषय या कथानक, शिल्प और भाषा का एकान समन्वय-बोध इस युग के कथाकारों के सुगठित और प्रगल्भ व्यक्तित्व का परिचायक है। अपना ऐसा प्रगल्भ और सुगठित व्यक्तित्व लेकर इस यग में दो कथाकार अवतरित होते हैं--हरिभद्र और कौतुहल । कालविस्तार की दृष्टि से ८वीं-९वीं शती में फैला यह कथासाहित्य प्राकृत कथासाहित्य के विकास की दृष्टि से उसका स्वर्णयुग है और इसकी सबसे बड़ी घटना है वस्तु-कन्टेंट और रूप या शिल्प--फॉर्म और स्टाइल का एकान्वयन । यह एकान्वयन इसके पूर्व संभव नहीं हो सका था। (शिल्प इस युग से पहले की कथाओं में बाहर से आरोपित था, पर अब दूध और पानी के समान परस्पर तादात्म्य भाव को प्राप्त हो गया था । इसे हम इस युग की कथा चेतना का सबसे महत्वपूर्ण विकास मान सकते हैं, जो हरिभद्र के अनन्तर प्राकृत कथाओं में बराबर चलता रहा । (वस्तु के अनुसार शिल्पगठन हरिभद्र को ही देन है, इस स्वीकृत सत्य का कथासाहित्य के ऐतिहासिक निरूपण में ध्यान रखना है । सर्वप्रथम हम कथानक की व्यवस्था और उसकी विविधता को लें। कथानक की विविधता शिल्पगत विविधता को जन्म देती है और इससे शिल्प और वस्तु के समन्वित प्रयोगों को अनेक दिशाएं मिलती हैं । (कथा-साहित्य का जितना व्यवस्थामूलक प्रयोग हरिभद्र के युग में हुआ, उतना अन्य युग में नहीं ।) इस प्रयोग के चलते इस युग में प्रौढ़ धार्मिक और प्रेमाख्यानक उपन्यासों का विकास हुआ । इसी योजना के अन्य विकास क्रम में हास्य और व्यंग्यशैली के कथानकों का भी श्रीगणेश हुआ । कथानकों के तीसरे विकासक्रम में जन्म-जन्मान्तर के कथाजाल का गुम्फन और जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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