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________________ इस कथाप्रन्थ की प्रशंसा वि० सं० १०२९ में "पाइय लच्छीनाम माला" के रचयिता घनपाल ने तिलक मंजरी में और वि० सं० ११९९ में सुपासनाह चरिय के रचयिता लक्ष्मण गणि ने एवं प्रभावक चरित में प्रभाचन्द्र सूरि ने की है। तरंगवती कथा का दूसरा नाम तरंगलोला भी रहा है। तरंगवती के संक्षिप्त कर्ता ने मिचन्द्र गणि ने भी संक्षिप्त तरंगवती के साथ तरंगलोला नाम भी दिया है। इस कथाग्रन्थ के रचयिता पादलिप्त रि है। इनका जन्मनाम नगेन्द्र था, साधु होने पर पादलिप्त कहलाये। प्रभावक चरित में बताया गया है कि अयोध्या के विजय ब्रहमराजा के राज्य में यह एक फूलश्रेष्ठि के पुत्र थे। आठ वर्ष की अवस्था में विद्याधरगच्छ के आचार्य आर्य नागहस्ती से इन्होंने दीक्षा ली थी। दसवें वर्ष में ये पट्ट पर आसीन हुए। ये मथुरा में रहते थे। इनका समय वि० सं० १५१--२१९ के मध्य में है। पादलिप्त सूरि गाथा सप्तशती के कर्ता सातवाहन वंशी राजा हाल के दरबारी कवि थे। बृहद् कथा के रचयिता कवि गुणाढ्य इनके समकालीन रहे होंगे। बताया गया है कि मुरुण्ड का पादलिप्त सूरि के ऊपर खूब स्नेह था। यह मुरुण्ड कनिष्क राजा का एक सूबेदार था। अतः इनका समय ई० ९४--१६२ के मध्य होना चाहिए। विशेषावश्यक भाष्य और निशीथ चूणि में इनका उल्लेख आने से भी इनका समय पर्याप्त प्राचीन प्रतीत होता है। पादलिप्त सुरि के संबंध में प्रभावक चरित और प्रबन्ध कोश इन दोनों में विस्तारपूर्वक उल्लेख विधमान है। यह निश्चित है कि इनका समय वि० सं० की दूसरी-तीसरी शती के पहले ही है। संक्षिप्त कथावस्तु तरंगवती को कथावस्तु को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है-- (१) तरंगवती का आर्यिका के रूप में राजगृह में आगमन । (२) आत्मकथा के रूप में अपनी कथा को कहना तथा हंसमिथुन को देखकर प्रेम की जाग्रति का होना। (३) प्रेमी की तलाश में संलग्न हो जाना और इष्ट प्राप्ति होने पर विवाहबन्धन में बंध जाना। (४) विरक्ति और दीक्षा। प्रथम भाग में बताया गया है कि राजगृह नगरी में चन्दन वाला गणिनी का संघ आता है। इस संघ में सुव्रता नाम की एक धार्मिक शिष्या है। इसी सुव्रता का दीक्षा ग्रहण करने से पहले का नाम तरंगवती है। राजगृह में जिस उपाश्रय में यह संघ ठहरा हुआ है। उसके निकट धनपाल सेठ का भवन है। इस सेठ की शोभा १--प्रसन्नगाम्भीरपथा रथांगमिथ नाश्रया । पुण्या पुनाति गंगेव या तरंगवती कथा ॥ संत० प्रस्ता०, पृ० १७ । २--को न जणो हरिसिज्जइ तरंगवइ-वइयरं सुणेऊण । इयरे पबंध सिंधुवि पाविया जीए महुरत्तं ॥ सुपा० पुव्वभ० ५० गा० ९ । ३--सीसं कह वि न फुटें जमस्य पालित्तयं हरंतस्स ।। ___ जस्स मुहनिज्झराओ तरंगलोला नई बूढा ॥प्र० च० चतुर्वि० प्र० पृ० २९ । ४--विशेष के लिये देखें--संक्षिप्त तरंगवती की प्रस्तावना, पृ० १२--१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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