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नाम की धर्मात्मा पत्नी है। एक दिन आयिका सुव्रता भिक्षाचर्या के लिये इसी सेठ के घर जाती है। शोभा इसके अनुपम रूप सौन्द
जाती है। शोभा इसके अनपम रूप सौन्दर्य को देखकर मग्ध हो जाती है और उससे धर्मोपदेश देने को कहती हैं। सुव्रता अहिंसा धर्म का उपदेश देती है तथा मानव-जीवन में नैतिक आचार पालन करने पर जोर देती है। शोभा सुव्रता की प्रखर वाणी से अत्यधिक प्रभावित है। वह उससे पूछती है कि आप त्रिलोक का सारा सौन्दर्य लेकर क्यों विरक्त हुई? मेरे मन में आपका परिचय जानने की तीव्र उत्कंठा है।
द्वितीय खंड में वह अपनी कथा आरम्भ करती है। वह कहती है कि वत्सदेश में कौशाम्बी नाम की नगरी में उदयन नाम का राजा अपनी प्रियपत्नी वासवदत्ता के सहित राज्य करता था। इस नगरी में ऋषभदेव नाम का एक नगर सेठ था। इसके आठ पुत्र थे। कन्या प्राप्ति के लिये इसने यमुना से प्रार्थना की, फलतः तरंगों के समान चंचल और सुन्दर होने से उसका नाम तरंगवती रखा गया। यह कन्या बड़ी कुशाग्र बुद्धि को थी। गणित, वाचन, लेखन, गान, वीणावादन, वनस्पतिशास्त्र, रसायनशास्त्र, पुष्पचयन एवं विभिन्न कलाओं में उसने थोड़े ही समय में प्रवीणता प्राप्त कर ली। एक दिन शरद ऋतु के अवसर पर यह अपने अभिभावकों के साथ वन-बिहार के लिए गयी और वहां एक हंस मिथुन को देखकर इसे पूर्वजन्म का स्मरण हो आया।
अंगदेश में चम्पा नाम की नगरी थी। इस नगरी में गंगा नदी के किनारे एक चकवा चकवी रहते थे। एक दिन एक शिकारी आया। उसने जंगली हाथी को मारने के लिये वाण चलाया, पर वह वाण भूल से चकवा को लगा। चकवा की मृत्यु देखकर चकवी बहुत दुखी हुई। इधर उस शिकारी को चकवे के मर जाने से बहुत पश्चाताप हुआ। उसने लकड़ियां एकत्र कर उस चकवा का दाह-संस्कार किया। चकवी भी प्रेमवश उसी चिता की अग्नि में जल गयी। उसी चकवी का जीव में तरंगवती के रूप में उत्पन्न हुई।
पूर्वभव को इस घटना के स्मरण आते ही उसके हदय में प्रेम का बीज अंकुरित हो गया और उसके मानस में अपने प्रिय से मिलने की तीव्र उत्कंठा जाग्रत हो गयी। एक क्षण भी उसे अपने पूर्वभव के प्रियतम के बिना युग के समान प्रतीत होने लगा।
तृतीय खंड में तरंगवती द्वारा प्रिय की प्राप्ति के लिये किये गये प्रयत्नों का वर्णन किया गया है। उसने सर्वप्रथम उपवास आदि के द्वारा अपनी आत्मा को प्रेम की उदात्त भूमि में पहुंचाने का अधिकारी बनाया। पश्चात् एक सुन्दर चित्रपट बनाया, जिसमें अपने पूर्वजन्म की घटना को अंकित किया। इस चित्र को अपनी सखी सारसिका के हाथ नगर में सभी ओर घुमवाया, पर पूर्वजन्म के प्रेमी का पता न लगा। एक दिन जब नगर में कात्तिकी पूर्णिमा का महोत्सव मनाया जा रहा था, सारसिका उस चित्र को लेकर नगर की चौमुहानी पर गयी। सहस्रों आने-जाने वाले व्यक्ति उस चित्र को देखकर अपने मार्ग से आगे बढ़ने लगे, किन्तु किसी के मन में कोई भी प्रतिक्रिया उत्पन्न न हुई। कुछ समय पश्चात् धनदेव सेठ का पुत्र पद्मदेव अपने मित्रों सहित उसी चौराहे पर आया। उस चित्र को देखते ही उसका ह.दय प्रेम-विभोर हो गया और उसे अपने पूर्वभव का स्मरण हो आया। उसने अपने मित्र के द्वारा इस बात का पता लगाया कि इस चित्र को नगर सेठ ऋषभ सेन की पुत्री तरंगवती ने बनाया है। उसे अब निश्चय हो गया कि तरंगवती उसके पूर्व जन्म की पत्नी है। अतः वह तरंगवती के अभाव में रुग्ण रहने लगा। पिता ने उसके स्वस्थ रखने के लिये अनेक उपाय किये, पर वे सब व्यर्थ सिद्ध हुए। अतः उसने पुत्र के अस्वस्थ रहने के कारण का पता लगाया।
तरंगवती के प्रति उसके हृदय में प्रेम का आकर्षण जानकर उसने तरंगवती के पिता ऋषभसेन से तरंगवती की याचना की, किन्तु नगरसेठ के लिये यह अपमान की बात
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