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________________ अंकित करायों तथा उन्हें राज्य चिह्न की मान्यता वी, अतः उसका वंश वानरवंश कहलाया। ये दोनों वंश दैत्य और पशु नहीं थे, बल्कि मानव जाति के ही वंश विशेष थे। (३) इन्द्र, सोम, वरुण इत्यादि देव नहीं थे, बल्कि विभिन्न प्रांतों के मानव वंशी सामन्त थे। (४) उदात्त चरित्रों की स्थापना तथा चरित्रों में स्वाभाविकता का सन्निवेश । (५) कथारस की सृष्टि के लिए अवान्तर और उपकथाओं की योजना। (६) भाषा सरल, ओजपूर्ण और प्रवाहमय महाराष्ट्री है। अपभ्रंश और संस्कृत का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है । (७) छन्द, अलंकार और रस की योजना बड़े कौशल के साथ की गयी है । (८) इसमें महाकाव्य के तत्वों का यथेष्ट समावेश है। तरंगवती कथा प्राकृत कथासाहित्य में तरंगवती कथा का महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि आज यह कथाग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, पर यत्र-तत्र इसके जो उल्लेख अथवा तरंगलोला नाम का जो संक्षिप्त रूप उपलब्ध है, उससे ज्ञात होता है कि यह एक धार्मिक उपन्यास था। इसको ख्याति लोकोत्तर कथा के रूप में अत्यधिक थी। निशीथ चूणि में निम्न उद्धरण उपलब्ध होता है: "अणे गित्थीहिं जा कामकहा। तत्थ लोइया णरवाहणदत्तकहा लोउत्तरिया तरंगवतीमगधसे णादीणि विशेषावश्यक भाष्य में इस ग्रन्य का बड़े गौरव के साथ उल्लेख किया गया है। जहवा निदिवसा वासवदत्ता तरंगवइयाई । तह निद्देसगवसओ लोए मणु रक्खवाउ ति ॥ जिनदास गणि ने दशवकालिक चुणि में धर्मकथा के रूप में तरंगवती का निर्देश किया है-- __ "तत्थ लोइएसु जहा भारहरामायणादिसुवेदिगेसुजन्नकिरियादीसु सामइगसु तरगंवइगासु धम्मत्थकामसहियाओ कहाओ कहिज्जन्ति'।" अद्योतन सूरि ने श्लेषालंकार द्वारा कुवलयमाला में बतलाया है कि जिस प्रकार पर्वत से गंगा नदी प्रवाहित हुई है, उसी प्रकार चक्रवाक युगल से युक्त सुन्दर राजहंसों को आनन्दित करने वाली तरंगवती कथा पादलिप्त सूरि से निस्टत हुई है। १--संक्षिप्त तरंवगती की प्रस्तावना में उद्धृत पृ० ७ । २--विशेषावश्यक भाष्य गाथा १५०८। ३--दसवे यालिय चुण्णि पत्र १०९ । ४--चक्काय-जुवल-सुहया रम्भत्तण-रायहंस-कय हरिसा । जस्स कुल-पव्वयस्य व वियरइ गंगा तरंगवई । कु० पु० ३ गा० २० । ३--२२ एडु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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