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________________ थे--आर्य नागल, आर्य वोमिल, आर्य जयन्त और आर्य तापस। आर्य नागल से ही नगेन्द्र वंश निकला होगा। पउम चरियं की प्रशस्ति में इन्हें नाइल कुल का वंशज कहा गया है। इस कृति के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों में विवाद है। ग्रन्थ में निम्न गाथा रचनाकाल पर प्रकाश डालने वाली उपलब्ध है :-- पंचव य वाससया दुसमाए तीस वरिस संजुता । वीरें सिद्धिमुवगए तउ निबद्धं इमं चरियं ॥ अतएव यह स्पष्ट है कि इस चरित काव्य का रचनाकाल वीर निर्वाण संवत् ५३० (वि० सं० ६०) बताया गया है। डा० हर्मन जैकोबी, उसकी भाषा और रचना शैली पर से अनुमान करते है कि यह ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी की रचना है। डा. कीथ ने लिखा है--"विमलसूरि ने पउम चरियं में, जो संभवतः ३०० ई० से प्राचीन नहीं है और जो जैन महाराष्ट्री का हमको विदित सबसे पुराना महाकाव्य है, हम उन शब्दों का खुला प्रयोग पाते हैं, जिनको व्याकरण देशी शब्द कहते हैं। इस कृति में प्रयुक्त दीनार, ग्रह-नक्षत्र आदि शब्द भी इस कृति का तीसरी शती से पूर्व मानने में बाधा उपस्थित करते है। पर हमारा अपना अनुमान है कि ग्रन्य की भाषा में उत्तरकालीन प्रतिलिपिकारों की कृपा से कुछ संशोधन हुआ है और कुछ प्रक्षिप्त गाथाएं भी आ गयी है। इसी कारण इसकी रचना के संबंध में विद्वानों में भ्रम उत्पन्न हो गया है। वास्तव में इसकी रचनातिथि वही है, जो ग्रन्थ की प्रशस्ति में उल्लिखित है। लग्न, ग्रह और नक्षत्रों का उल्लेख सूर्य प्रज्ञप्ति और ज्योतिष्करण्डक में भी आता विमलसूरि की एक अन्य कृति भी बतायी गयी है--"हरिवंस चरियं"। जिस प्रकार इन्होंने रामकथा पर पउम चरियं की रचना की है उसी प्रकार कृष्ण चरित पर हरिवंस चरियं की रचना की। इस कृति में कृष्णावतार के साथ कृष्ण से संबंध रखने वाले अन्य पाण्डवादि पौराणिक आख्यान भी निबद्ध किये है। पउम चरियं की संक्षिप्त कथावस्तु विद्याधर, राक्षस और वानरवंश का परिचय देने के अनन्तर बताया है कि विजयार्द्ध की दक्षिण दिशा में रथनूपुर नाम के नगर में इन्द्र नाम का प्रतापी विद्याधर रहता था। इसने लंका को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। पाताल लंका के राजा रत्नश्रव का विवाह कौतुक मंगल नगर के व्योम विन्दु की छोटी पुत्री के कसी से हुआ था, रावण इसी दम्पति का पुत्र था। इसने बचपन में ही बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की थी, जिससे यह अपने शरीर के अनेक आकार बना सकता था। रावण और कुम्भकरण अधिपति इन्द्र और प्रभावशाली विद्याधर वैश्रवण को परास्त कर अपना राज्य १- जैनाचार्य की आत्मानन्द शताब्दी स्मारक “महाकवि विमलसूरि अने ते मनुं रचे लं," पृ० १०१ । २--राह नामायरिउ--नाइलकुलवंसनंदियरो। प० पर्व ११८ गा० ११७--११८ । ३--१० पर्व ११८ गा० १०३ । ४--जनसाहित्य और इतिहास पृ० ९१ । ५--डा० ए० वी० कीथ, सं० इ० पृ० ४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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