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________________ उपदेशात्मक भी है। लोककथाओं में चरित्र, घटना और कथानक तो मिलते ही हैं, पर इनका प्रधान उद्देश्य होता है लोक-मानस का रंजन करना तथा लोक संस्कृति को प्रकाश में लाना। सामाजिक चित्रण से भिन्न सांस्कृतिक सम्पर्क और सांस्कृतिक मानस संगठन की स्थापना का प्रयत्न भी हरिभद्र पूर्वयुगीन लोक कथाओं की रचना की एक प्रवृत्ति मानी जानी चाहिए।) स्वाभाविक और जीवनोद्भूत घटनाक्रम का सन्निवेश कथा को कहानी बनाता है। घटनाशून्य कथा नितान्त असफल है, यह एक ऐसा वृत्तान्त है, जिसमें रोचकता नाम की कोई वस्तु ही नहीं है। यतः घटना से रोचकता और कौतूहल की प्रतिष्ठा होती है तथा वास्तविक कथा का आरम्भ रोचकता और कौतूहल से ही सम्पन्न होता है। आगामिक प्राकृत कथाओं में घटना का बाहर से आरोपण किया जाता था, पर इस युग की कथाओं का स्पष्ट संकेत मिल जाता है कि घटनाए कथा के भीतर से चरित्रों को गति देने के फलस्वरूप पैदा होती है। पात्रों की गतिशीलता--चारित्रिक मान और कार्यतत्परत का घटनाक्रम के सिलसिले में पाया जाना परमावश्यक है । घटनाओं के पीछे कारणत्व की प्रतिष्ठा द्वारा वास्तविक कथानकों के निर्माण की चेतना भी इस युग की देन समझनी चाहिए, जो कथा में स्थापत्य की प्राण प्रतिष्ठा का कारण है। वसुदेवहिण्डी में भ्रमण द्वारा घटनाओं के सन्निवेश और उनके वैविध्य की सूचना मिलती है। ये समस्त परिस्थितियां कथात्मक दायित्व की नई मोड़ों की स्थापना के धरातल पर ग्राह य हैं। ( स्थापत्य की एक स्थिर और सुस्पष्ट दृष्टि इस युग की एक भिन्न प्रवृत्ति है । प्रत्येक कथा को कई अंशों में विभक्त करना स्थापत्य की चेतना है। वसुदेवहिण्डी में कथा की उत्पत्ति, पीठिका, मुख, प्रतिमुख, शरीर और उपसंहार कथा को एक सीमित और निश्चित विस्तार देते हैं, जो अनावश्यक कथा के सूत्रों की प्रलम्बवृत्ति को नियन्त्रित और बद्धकर कथा को संतुलित रूप में विकसित होने का अवसर प्रदान करते हैं। कथावस्त को जब निश्चित स्थापत्य मिल जाता है तो उसमें कयात्मक प्रवत्तियों की विविधता आती है और अनेक प्रकार की कथाओं का जन्म होता है। इस युग की अर्द्ध-ऐतिहासिक कथाएं प्रेमाख्यान, युद्ध एवं साहसिक कथाएं स्थापत्य की सुघटता की देन है। कथाओं के विषयों की व्यापकता और विभिन्नता, मानव प्रकृति का परिचय, वर्णनसौन्दर्य, भाषा तथा शैली की सरलता आदि इस युग की कथा के रूप तत्व है। (२) इस युग की प्रमुख प्राकृत कथाएं इस युग की प्रतिनिधि रचनाएं तीन हैं--पउम चरियं, तरंगवती और वसुदेवहिण्डी। हरिवंस चरिय भी चरित काव्य रूप एक कृति है, पर इस युगीन चरित काव्य का प्रतिनिधित्व पउम चरियं को ही दिया जा सकता है। यहां इन तीनों प्रमुख कथा कृतियों का विवेचन करना आवश्यक प्रतीत होता है। पउम चरियं ( रामकथा संबंधी सबसे पुरातन प्राकृत रचना पउम चरियं है । इसके रचयिता विमल रि है।) इन्होंने इस ग्रन्थ को प्रशस्ति में अपने को नगेन्द्र वंश दिनकर, राहुसूरि का प्रशिष्य और पूर्वधर कहा है। महाकवि के विद्यावंश के परिचय से ज्ञात होता है कि राहुसूरि के शिष्य का नाम विजयसूरि था और इन्हीं विजयसूरि के शिष्य विमल सरि थे। कल्पसूत्र में दी गयी तापस वंशावली मेंबताया गया है कि आर्य यस् पसेन के कर शिष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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