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________________ २७ घ - - हरिभद्र पूर्वयुगीन स्वतंत्र प्राकृत कथासाहित्य ( १ ) इस युगीन प्राकृत कथा प्रवृत्तियों का विवेचन; कथात्मक दायित्व के नये मोड़ एवं ग्रहणशील चरित्र सृष्टि का उत्थापन आगम प्राकृत कथासाहित्य के उत्तर और हरिभद्र के पूर्व प्राकृत कथासाहित्य की एक स्पष्ट धारा दिखलायी पड़ती है । यहां हमारा अभिप्राय उस प्रकार के प्राकृत कथासाहित्य से हैं, जो हरिभद्र से पहले कथा या चरित के रूप में लिखा गया है । ( समय क्रम के अनुसार ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी से आठवीं शती के पहले की रचनाएं इस कालखंड के अन्तर्गत हुँ । सर्वप्रथम इस कालखंड की सामान्य प्रवृत्तियों और स्थापत्य का विश्लेषण किया जायगा, तदनन्तर इसकी प्रमुख कथा कृतियों का विवेचन । किसी भी साहित्य की व्यवस्था का कार्य दायित्वों की पहचान का कार्य 1 यह affera जब विशुद्ध कलात्मक चेतना से प्रकट होता है, तभी उस साहित्य रूप की प्राणप्रतिष्ठा संभव है । (हरिभद्र के पूर्व कथात्मक चेतना में यह दायित्व बाहरी शक्तियों और प्रेरणाओं से निर्धारित होता रहा हूँ --जैसे धर्म, सामाजिक नैतिकता, नीतिबोध और नीति प्रवणता के प्रथित मानदण्ड ।) स्वयं यह दायित्व कथाकार की चेतना से उभरने का आरम्भ हरिभद्र के पूर्व की कथाओं से होने लगता है, भले ही उस दायित्व के निर्वाह और संभार की चेतना प्रारम्भिक प्रतीत हो और उस चेतना की स्वीकृति और बोध क आयाम स्वयं उस युग के कथाकारों के समक्ष कुछ धूमिल से हो रहे हों । परन्तु आज के तटस्थ दर्शन से ऐसा लगता है कि कथात्मक दायित्व से उस युग के कथाकारों का प्रथम परिचय अवश्य हुआ । हरिभद्र के पूर्व की कथाओं में एक तथ्य, जो हठात् हमारा ध्यान आकृष्ट करता है, वह Terrariat aftत्र सृष्टि की सजगता पहले की कथाओं में हम पात्र मिलते हैं, जो समाज के विविध क्षेत्रों और रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं -- उनमें हमें चरित्र का कथात्मक उत्कर्ष नहीं मिलता । चरित्र - सृष्टि के लिए अपेक्षित संतुलित और मानवीय जीवन दृष्टि हरिभद्र के पूर्वकालीन कथाओं में स्पष्ट नहीं है । चरित्र- सृष्टि के लिये व्यापक आधार - फलक चाहिये, यह हरिभद्र की पूर्व की कथाकृतियों-- तरंगवती, वसुदेवहिण्डी और पउम चरिय में परिलक्षित होता है । इस युग में तरंगवती उपन्यास क रूपविन्यास का प्रारम्भ इस तथ्य का प्रमाण उपस्थित करता है कि तद्युगीन कथाकारों न अवश्य एक व्यापक आधार फलक की खोज का प्रयास किया, उसमें उनको किस हद तक सफलता मिली, यह कहना संभव नहीं, यतः इसके प्रमाणस्वरूप उस युग का ज्ञात एक मात्र औपन्यासिक आख्यान " तरंगवती" भी मूल रूप में उपलब्ध नहीं है । उपन्यास चरित्र- सृष्टि का उपयुक्त और सार्थक माध्यम बनने में सक्षम हैं, क्योंकि चरित्र-सृष्टि के लिये आवश्यक संघात का उत्थापन उपन्यास के विस्तृत और सहेतुक आधार-फलक पर ही आसानी से हो सकता है । चरित्र - सृष्टि की इस चेतना को हम अनिवार्यतः कथात्मक दायित्व की नई मोड़ के रूप में स्वीकार कर सकते हैं । पउमचरिय में रामकथा के संदर्भ में चरित्रों की प्रतिष्ठा का प्रयत्न, हरिवंस' - चरिय में कृष्णकथा के प्रसंग में चरित्रों का विकास, वसुदेव हिण्डी में लोक कथाओं की रचना द्वारा चरित्रों के ग्रहण और विकास का कार्य, कथाओं के परिवेशों का विस्तार, संवादों के नये रूप, हास्य और व्यंग्य के पुट, परिस्थितियों के नये-नये संयोजन कथात्मक दायित्व की नई मोड़ों की ही सूचना देते हैं । १ - - विशेष जानने के लिये देखें -मुनि जिनविजय जी द्वारा सम्पादित कथाकोष प्रकरण की प्रस्तावना, पृष्ठ ६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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