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________________ जीवि बनने के लिए मण्डित' चोर की कथा वणित है। नवम अध्ययन की टीका में करकण्डु और द्विमुख नृपति को कथाएं कल्पना और राग तत्व के साथ भूतकालीन ऐतिहासिक और पौराणिक सूत्रों को भी जोड़ती है। गंगा की उत्पत्ति की कथा इस बात की द्योतक है कि (प्राकृत कथाकारों ने वैदिक पौराणिक आख्यानों को अपनाकर लोक धर्म के साथ अपना रुचिकर सम्बन्ध जोड़ा है। यह कथा बौद्ध साहित्य में थेरी गाथा की अट्ठकथा में भी रूपान्तरित स्वरूप में मिलती है) (राजीमती की दृढ़ता प्राकृत कथासाहित्य का एक उज्ज्वल रत्न है, स्त्री जाति के चरित्र की ऐसी निर्मलता बहुत कम स्थलों पर ही उपलब्ध होती है। ये सभी कथाएं सार्वभौमिक हैं तथा साम्प्रदायिकता और संकुचित । से दूर हैं। जन-कल्याण के मूलतत्व इन कथाओं में प्रचुर परिमाण में वर्तमान हैं। चित्र और सम्भूत की कथा, जो कि मूल रूप में उत्तराध्ययन में पायी है और सुखबोध टीका में इसका विस्तार हुआ है, जातिवाद के विरुद्ध घोर प्रचार का समर्थक है। प्रकृत कथाकारों ने समाज के परिष्कार और उत्थान के लिए जातिवाद पर खूब प्रहार किये हैं) जातिवाद का विष भारतवर्ष में वैदिक युग से ही व्याप्त था। पालि और प्राकृत साहित्य ने अपने युग की इस समस्या को सुलझाने की पूरी चेष्टा की है। ज्ञान, सौन्दर्य और शील इन तीनों रसात्मक तत्वों की अभिव्यंजना उत्तराध्ययन की सुखबोध टीका में हुई है। नमूने के तौर पर सुखबोध टीका की मूलदेव कथा के संक्षिप्त विवेचन द्वारा उसकी विशेषताओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालने को चेष्टा की जायगी, जिससे सुखबोध टीका को कथाओं की विशेषताएं स्पष्ट दृष्टिगोचर होंगी।) (इस कथा का प्रारम्भ इतिवृत्तात्मक विवरण से हुआ है। प्रथम अनुच्छेद में ही घटनो और परिस्थितियों की झलक संवेदनशीलता का स्फुरण करती है। "तत्थ गुलियापोगेण परावत्तियवेसो वामणयागारो विम्हावेइ विचित्त कहाहि गंधवाइ-कलाहिं नाणाकोउगोहि य नायरजणं'। यह पंक्ति मात्र पीठिका की श्रृंगारसज्जा ही नहीं करती बल्कि रोमांचक कुतूहल की सृष्टि करती है । (समस्त कथा गद्य में है, बीच-बीच में प्ररोचन शिला के विकास के लिए कथाकार ने पद्यों का भी प्रयोग किया है। कथाकार ने इस कथा में उपचारवक्रता का प्रयोग बड़ी कुशलता से किया है। देवदत्ता की मां प्रोर अचल का षड्यन्त्र इस कथा में उपचारवऋता है। यदि यह कपट योजना इस कथा में घटित नहीं की जाती, तो कथा आगे ही नहीं बढ़ती।। "कहसु एईए पुरो अलिय-गामंतर-गमणं। पच्छा मलदेवे पविट्ठ मणुस्स-सामग्गीए प्रागच्छज्जह विमाणे जजह यतं.जेण विमाणिनो संतो देस-च्चायं करे। ता संजत्ता चिज्जह अहं ते वितं दाहामि। पडिवन्नं च तेण । अन्नम्मि दिणे कयं तहे व तेण" इन पंक्तियों द्वारा कथानक में वह मोड़ उत्पन्न की गयी है, जिससे कथा फल प्राप्ति की ओर अग्रसर होती है। यह वृत्तान्त कथा को सामूहिक योजना और उसके समष्टि प्रभाव को उत्कर्षोन्मख बनाता है। एक देश और काल की परिस्थिति के भीतर मानव जीवन की विभिन्न स्थितियों का या का निरूपण करना इस कथा का साध्य हैं ही। परिस्थिति योजना और घटना क्रम का मेल बहुत सुन्दर हुआ है।) १--स० टी०, प०६५। २-- ही, पृ० १३३ । ३--वही, पृ० १३३ । ४--वही, पृ०२३३ । ५--वही, पृ० २७६-२८२ । ६--वही, पृ० १८५-१६७। ७----मलदेव कथा अनुच्छेद १। ८-- वही,६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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