________________
२३
निशीथचणि में अन्याय के प्रतीकार के लिए कालकाचार्य' को कथा प्रायी है। उज्जयिनी का राजा गर्दभिल्ल कालकाचार्य को सरस्वती नामक भगिनी, जो कि साध्वी थी, पर प्रासक्त हो गया और उसने उसे बलपूर्वक अपने अन्तःपुर में रख लिया। कालकाचार्य ने ईरान के बादशाह की सहायता से गर्दभिल्ल को परास्त कर अपनी बहन का उद्धार किया।
सूत्रकृतांग चूणि में "प्राक कुमार की कथा", "हस्तितापस निराकरण कथा", 'अर्थलोभी वणिक की कथा" प्रादि कई सुन्दर प्राकृत कथाएं अंकित हैं। आर्द्रक कुमार की कथा में बताया गया है कि प्राईक कुमार प्रवजित होकर वसन्तपुर में आया और यहां एक श्रेष्ठिकन्या उस पर आसक्त हो गयी। फलतः कन्या के दुराग्रह के कारण आईक कुमार का विवाह उस कन्या के साथ हो गया। पुत्र उत्पन्न होने पर आर्द्रक कुमार पुनः दीक्षित होकर जाने लगा, पर पुत्र और पत्नी के आग्रह से उसे बारह वर्षों तक और घर में रहना पड़ा। पश्चात् दीक्षित होकर उसने घोर तपश्चरर किया पारिवारिक सम्बन्ध ही इस कथा में रोमांटिक वातावरण का सृजन करता है। ममता ही परिवार को भित्ति है । इसी के कारण त्यागी व्यक्ति को भी सांसारिक बन्धन में फंस जाना पड़ता है।)
अर्थलोभी वणिक की कथा में आया है कि एक राजा प्रतिवर्ष उत्सव मनाया करता था। एक समय उसने अाज्ञा दी कि सभी पुरुष नगर से बाहर निकल जावें, केवल स्त्रियां ही यहां रहकर उत्सव सम्पन्न करें। एक अर्थ लोभी वणिक और उसके दूकान के लोभ से नियत समय तक नगर से बाहर नहीं निकल सके। नगर के फाटक बन्द हो जाने से वे वहीं रह गये और राजाज्ञा का उल्लंघन करने से दंडित हुए।
व्यवहार भाष्य और बृहत्कल्प भाष्य में प्राकृत कथाएं बहुलता में उपलब्ध है। इन भाष्यों को अधिकांश कथाएं लोककथा और उपदेशप्रद नीति कथाएं है) कुणाल', राजा शालिवाहन प्रति कुछ कथाएं अवश्य ऐतिहासिक है। कथाओं को पढ़ने से ऐसा लगता है कि इन कथाओं में ऐतिहासिक सूत्र सुरक्षित है। पठन का राजा शालिवाहन प्राकृत स हित्य में लब्ध-प्रतिष्ठ नायक है। इसकी शासन व्यवस्था, राज्य विस्तार आदि का निर्देश इन कथाओं में मिल जाता है।
व्यवहार भाष्य में भिखारी का सपना', छोटे बड़े काम कैसे कर सकते हैं, कार्य हो सच्ची उपासना है, प्रभृति तथा बृहत्कल्प भाष्य में अक्ल बड़ी या भैस", बिना विचारे काम", मूर्ख बड़ा या विद्वान्, वैद्यराज या यमराज, शंब, सच्चा भक्त, जमाई
१--नि० चू० उद्देश्य १०, पृ० ५७१ । २--सूत्र० चू० पृ० ४१४-१५ । ३--सूत्र० चू०प्र०४४१। ४--सूत्र० चू० पृ०४५२ । ५--बृह० क० भा० पीठिका, पृ० ८८ । ६--बृह० क० भा० उद्देश्य ६, पृ० १६४७ । ७--व्यव०भा० उद्देश ३,पृ० ८। ८--व्यव० भा० उद्देश ३, पृ०७। 8--व्यव० भा० उद्देश ३, पृ० ५१ । १०--बृह० क० भा० पी०, पृ० ५३ । ११--बह० क० भा० पी०, पृ० ५६ । १२--बृह० क० भा०पी०, पृ० ११० । १३--बृह० क० भा० पी०, पृ० १११ । १४--बृह० क० भा० पी०, पृ० ५६-५७ । १५--बृह० क भा० पी०, पृ० २२३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org