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________________ भी स्तर, जाति या वर्ग का हो, नायक या पात्र है। नायक का पद ऐतिहासिक या पौराणिक व्यक्तियों को ही नहीं सौंपा गया है, किन्तु कल्पित साधारण व्यक्ति भी इस पद के अधिकारी है। इतनी बात अवश्य है कि नायक सामाजिक अवस्था के चित्रण में ही अपना विकास प्रकट करता है। फलतः समाज के विविध प्रकार के सदस्यों, नाना प्रकार की प्रथाओं और अन्धविश्वासों का पूर्णरूपेण निरूपण हुआ है । लोकजन्य औदार्य इन कथाओं में प्रचुर मात्रा में मिलता है। पशु-पक्षी को भी पात्रों के रूप में उपस्थित किया गया है। पश मनोविज्ञान की जानकारी भी इन कथानों में यथेष्ट रूप में विद्यमान है। प्रागमिक कथाओं की प्रतीक पद्धति टीकाओं में उपदेश रूप में परिवत्तित दृष्टिगोचर होती है।) कथा की चेतना में विकास का दूसरा क्षेत्र है, इन कथाओं में विविध प्रकार की प्रवृत्तियों के चित्रण का समावेश) मानव मन के गहन लोक में प्रथम वार प्रवेश करने का प्रयास इनमें हुआ है। लोककथा, हास्य, तन्त्र-मन्त्र, अनुश्रुतियां, प्रहेलिकाएं प्रभृति विभिन्न प्रकार के सार्वजनीन तत्त्व टीकायुगीन प्राकृत कथाओं में ग्रहीत है। स्थूल मानवीय वृत्तियों, जैसे क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, घृणा, ईर्ष्या प्रादि का चित्रण करने वाली कथाएं किसी मूल मानववृत्ति को चित्रित करने के प्रसंग में ग्रथित है। पशु पात्रों में मानवीय प्रवृत्तियों का प्रारोपण कहानी में रोचकता और कौतूहल, इन दोनों महत्व पूर्ण तथ्यों की ओर संकेत करते है।) (विषय की दृष्टि से ये कथाएं दो श्रेणियों में विभक्त की जा सकती हैं--पौरागिक और धार्मिक । पौराणिक कथाओं में भी कल्पना का पूरा पुट विद्यमान है। चाणक्य और चन्द्रगुप्त जैसे ऐतिहासिक व्यक्तियों के पाख्यानों में भी नामों की ही ऐतिहासिकता दृष्टिगोचर होती है, शेष पौराणिकता ही इनमें वर्तमान है। __ ट्रीटमेन्ट की दृष्टि से ये कथाएं पहेली साहित्य के अधिक निकट हैं। कहानी से अधिक इनमें पहेली बनने की प्रवृत्ति है। इनके भीतर आये हुए नीति वाक्य को पकड़ना पहेली बूझने के समान ही है। इससे वास्तविक कथातत्व के समाहार और समन्वय में दूरस्थता का प्रा जाना स्वाभाविक है। इसी कारण कुछ कथाएं शुष्क और अरोचक प्रतीत होती हैं। ) (विस्तृत कथा यात्रा में ये कथाएं पूर्ण और स्वतन्त्र हैं। इनका अस्तित्व और सीमा विस्तार अपने क्षेत्र से बाहर नहीं है। भाष्य और चूर्णियों में पायी हुई कुछ कथाएं तो निश्चित रूप से एक द्वीप या क्षेपक के समान मालूम पड़ती है। मनोरंजन और कौतूहल का समाहार इन कहानियों को लघु कहानी के अधिक निकट लाता है (टीकाओं में सामान्यतया विषय का विस्तार होता है और एक विषय के अन्तर्गत अनेक विषय रहते हैं। ये कथाएं जिस विषय की पुष्टि में आती हैं, उसमें अपने विषय की पूर्ण प्रतिष्ठा करती है, अतः अपने विषय के चुनाव या उसके निरूपण में आकर्षणहीनता और अस्वाभाविकता का दोषारोपण भी इनमें संभव नहीं है । /इनके पात्र टिपीकल (typical) और वातावरण एवं परिस्थिति के अनुकूल है। वे समाज के प्रत्येक वर्ग से आते हैं और उनपर किसी मर्यादा का बन्धन नहीं।) इन कथानों की पूर्ण सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि ये भाष्य, चणियों और टीकात्रों में जिस विषय के स्पष्टीकरण के लिए प्रयुक्त हुई है, उस उद्देश्य में सफल है या नहीं। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org:
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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