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________________ १६ टीकायुगीन कथाओं में दूसरी चीज, जो हठात् हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं, वह हैं, उनकी रूपाकृति में अधिकाधिक संभावित लघुता का सन्निवेश ) यह इस युग की प्राकृत कथाओं की नयी उपलब्धियां हैं, जो आगमिक कथाओं में अज्ञात और अनुपलब्ध हैं । कथा का रूप या स्थापत्य दो बातों पर निर्भर करता है -- प्रथम यह कि कथा जिस वातावरण में घटित हो रही हैं, उसके विस्तार, सीमा और निर्णायक तत्त्व कौन-कौन से हैं । उनके पात्रों के उद्देश्य विषय के साथ कौन-कौन से संबंध हैं और वे सम्बन्ध किस विशेष तत्त्व द्वारा निर्धारित हो रहे हैं । कथाओं की रूपाकृति को प्रभावित करने वाले निर्धारक तत्त्व की उद्देश्य के प्रति कितनी सजगता है और प्रभावोत्पन्न करने में उसकी कितनी क्षमता है । कथा के रूपतत्त्व को निर्धारित करने वाली दूसरी वस्तु है उसकी आवश्यकता The आवश्यकता के लिए कथा लिखी जा रही हैं, ) जीवन के किस रूप को व्यक्त करना उसका प्रतिपाद्य है, आदि । टीकायुगीन कथानों की स्पष्टतः श्रावश्यकता भाष्य या व्याख्या के सिलसिले में नीति या किसी तथ्य की पुष्टि के रूप में ही ग्राह्य है । इनकी लघुता का एकमात्र प्राधार इस अर्थ में नीति है--नीति के स्वरूप, ग्रहण और व्यंजना तीनों में संक्षिप्तता श्रावश्यक वस्तु सत्य है । नीतिप्रधान कथाओं की सामान्य प्रवृत्ति प्रभाववादी होती है - अपने प्रभाव को प्रक्षुण्ण और सहज ग्राह्य बनाने के लिए नीतिप्रधान कथाएं अपने लघु परिवेश में ही सुशोभित होती हैं । श्राकार की दृष्टि से कड़ों टीकायुगीन कथाएं प्राज की लघु कथाओं (short stories ) से समता रखती हैं । अतएव टीकायुगीन कथाओंों की एक विशिष्ट प्रवृत्ति उनको नीतिपरकता है, जो श्रागमिक प्राकृत कथा की धार्मिकता के पूर्व धरातल से अपने पृथक करने की प्रकृति ture हैं । गमिक कथाओं में कुछ को छोड़, अधिकांश कथाओं को हम साम्प्रदायिक धार्मिकता से अभिभूत कह सकते हैं - उनमें लोक कथाओं या नीति कथाओं जैसा संकेत या निदश नहीं, किन्तु टीकायुगीन अधिकांश कथानों में पर्याप्त मनोरंजन हैं, साथ ही जीवनव्यापी तथ्य भी । श्राख्यानों की पीयूषधारा में जीवन की अनेक संभावनाएं व्यक्त हुई हैं । कथाएं स्वरूप की दृष्टि से पुराण से अधिक निजन्धरी कही जा सकती हैं। यही कारण है कि इनमें ऐसी नीतिपरकता है, जिसपर धार्मिकता की कोई निजी छाप नहीं है । निस्सन्देह कतिपय टोकायुगीन कथाएं साम्प्रदायिक हैं । ये एक नयी प्रवृत्ति की स्थापना और उसके बढ़ाव का प्रयास करती हैं। इन कथाओं की नीति उन्मुखता पूर्णतः व्यापक जीवन के संदर्भ में घटित होती हैं, किसी सम्प्रदाय विशेष के पन्थ निरूपण में नहीं। नीति कथन में श्रात्यन्तिक प्रखरता, नीति या उपदेश को पकड़ने की शीघ्रता एवं प्रभावोत्पादन में अत्यधिक सावधानी, इन प्राकृत कथाओं के परिष्कृत और व्यवस्थित शिल्प के आवश्यक उपादान हैं। यह नीति कथ्य नहीं है, बल्कि सांकेतिक या संवेद्य है । इसी कारण यह सार्वभौमिक और साधारण जन-प्रास्वाद्य है । टीकायुगीन प्राकृत कथाओं का स्थापत्य रूपरेखा की मुक्तता ( clarity of ou line) से मुक्त करता है । इन कथाओंों की एक अन्य विशेषता सामान्य लोक परम्परा के ग्रहण की हैं ।) यह कथा के विकास की एक नयी चेतना है, जिसके बीज 'नायाधम्म कहानी' में वर्त्तमान थे। लोक-जीवन को असामान्य विविधता में उद्घाटित करना, कथा को जीवन्त, मौलिक और प्रेषणीय बनाना है )। (लोक तत्त्व के आधार पर नायक की स्थापना की गयी है । इन कथाओं का शील गुण सम्पन्न, समादर प्राप्त व्यक्ति ही नायक बनने का अधिकारी नहीं है; बल्कि लोक का कोई भी पात्र चाहे वह किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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