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________________ ग--टीकायुगीन प्राकृत कथासाहित्य (१) कथा प्रवृत्तियों का सामान्य विवेचन कतिपय उपमानों, रूपकों और प्रतीकों को आधार लेकर आविर्भूत प्राकृत कथासाहित्य का प्रागमोत्तरकाल में पर्याप्त विकास हुआ। यह इसके विकास का. द्वितीय स्तर है। भाष्य, नियुक्तियां, चूर्णियां और टीकाएं आगम ग्रन्थों के अर्थ को ही स्पष्ट नहीं करतीं, बल्कि पर्याप्त मात्रा में वर्णनात्मक साहित्य भी उपस्थित करती है। हम टोकायुगीन प्राकृत कथासाहित्य के विवरण के पूर्व उसकी सामान्य प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालना आवश्यक समझते हैं। यतः यह विश्लेषण उक्त युगीन कथाओं को अन्तश्चेतना और स्थापत्य को पर्याप्त आलोकित करेगा। (सबसे पहली चीज, जो टीकायुगीन कथाओं को अपने पूर्ववर्ती कथासाहित्य से अलग करती है, वह है शैलीगत विशेषता ।) प्रागम-कथाएं “वण्णो " द्वारा बोझिल थीं। चम्पा या अन्य किसी नगरी के वर्णन द्वारा ही समस्त वर्णनों को अवगत कर लेने की अोर संकेत कर दिया जाता था। परन्त टीकानों में यह प्रवत्ति न रही और कथानों में सुन्दर वर्णन होने लगे। दूसरी विशेषता यह आयी कि (एकरूपता और एकतानता के स्थान पर विविधता और नवीनता का प्रयोग होने लगा। विषयों के चुनाव, निरूपण और सम्पादन हेतुओं में विविधता का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। नवीनता की दृष्टि से पात्र, विषय, प्रवृत्ति, वातावरण, उद्देश्य, रूपगठन एवं नीति संश्लेष प्रादि सभी में नवीनता का आधार ग्रहण किया गया है। अपनी इन दोनों प्रकार की विशिष्टताओं में प्रयोग की दृष्टि और उस प्रयोग के साथ कथा निर्वाह की समर्थ चेतना इन कथाओं का वह तत्व है, जो कथा को मात्र रूढ और गतिहीन साहित्य रूप तथा शिल्प मानने का समर्थक नहीं है, जो टीकात्रों के स्थिर और मौलिक रचना के ह्रास युग में भी प्राणवन्त और जीवन को चित्रित करने के दायित्व-संभार से पूर्ण और सजग रह सकता है। सामान्यतः किसी भी साहित्य या वाङ्मय का टीकायुग विकासधारा में उस स्थिति का सूचक है, जब रचना प्रक्रिया में आगम की वशतिता और नयी मौलिकता को जन्म देने की भीतरी बेचैनी, ये प्रवृत्तियां सामने आती हैं। इसलिए टीकायुग साहित्य में अनायास टपक पड़ने वाला, पर नये विकास के लिए आवश्यक-गत्यवरोध का युग होता है।) ( यह गत्यावरोध इस बात को लेकर होता है कि सृजन की पूर्वापर उपलब्धियों के मूल्यांकन की समस्या के साथ चेतना को अन्वित कैसे किया जाय, उस अन्विति का क्या रूप हो, उसकी सार्थक और आवश्यक संगति के कौन-कौन तत्त्व है, आदि। जो हो (टोकाओं में सठशलाका पुरषों की मात्र जीवनगाथाएं ही नहीं है, बल्कि लोककथा, नीतिकथा और उपदेशप्रद दष्टान्त कथाओं के विकसित रूप भी विद्यमान है। (भाष्य, चूणियों और टीकाओं में यद्यपि कथानों की शैली आगमिक कथाओं को शैली की अपेक्षा भिन्न है, पर अन्तरात्मा वही है और स्थापना-पद्धति भी वही है , जो आगमिक कथासाहित्य के अन्तर्गत "नाया घम्मकहानो" में है। पर टीकायुगीन कथाओं की एक प्रमुख विशेषता यह है कि वे दुहरे प्रकार के दायित्व निर्वाह से सम्बन्धित है। एक ओर वे पूर्ववर्ती साहित्य की व्याख्या और अर्थापन के लिए सुविधाजनक मार्ग का निर्माण करने में निमित्त है--और इस प्रकार उस विशेष साहित्य के अध्ययन में संलग्न है, जो अपनी समृद्धि और गरिमा में classica श्रेण्य हो जाता है--और दूसरी ओर वे नयो मौलिकता और संवेदना को जन्म देने के लिए धरती या पृष्ठभूमि तैयार करने का कार्य करती है। टीकायुगीन कथाओं के परिवेश पर्याप्त विस्तृत है। प्रवृत्तियों की स्थापना में जितना ठहराव संभव है, उतना प्रवाह नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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