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प्रसिद्ध महापुरुष इस प्रकार के घोर उपसर्गों पर विजय प्राप्त करके अनुतरवासी हुए थे, उनके आकर्षक पाख्यानों का भी विशव और विस्तृत वर्णन था । ___ बारहवें दृष्टिप्रवाद अंग में कौलकल, काणेविद्धि, कौशिक, हरिस्मश्रु, मांछ पिकरोमश हारीत, मुण्ड और प्राश्वलायन प्रादि १२० प्रक्रियावादियों का, मरीचिकुमार, कपिल, उलूक, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वादलि, माठर और मौद्गलायन प्रादि ८४ क्रियावादियों का, साकल्य, वाल्कल, कुथुमिसात्यमुग्र, नारायण, कठ, माध्यंन्दि, मोद, पैप्पलाद, बादरायण, अम्बष्ठि, कुदौविनायन, वसु, जैमिनी प्रावि ६७ प्रज्ञान वादियों का एवं वशिष्ठ, पाराशर, जतुकणि, बाल्मीकि, रोमहर्षिणि, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, प्रौपमन्यव, इन्द्रदत्त और अयस्थुण आदि ३२ वैनयिकों का तर्कपूर्ण खंडन किया है। स्वमत स्थापन और परपक्ष निरूपण में कथोपकथन का सहारा लिया गया है । अतः इन दार्शनिक संवादों में कथातत्त्व पूर्णतया विद्यमान थे। यह ध्यातव्य है कि कथा के उद्गम या जन्म लेने में व्यक्तिवाचक नाम और उपमान सबसे बड़े उपादान है। दृष्टिवाव अंग में इन उपादानों की कमी नहीं थी।
उपलब्ध साहित्य में प्राचार्य कुन्द कुन्द के भावपाहुड में बाहुबलि, मधुपिंग, वशिष्ठमुनि, शिवभूति, बाहु, द्वीपायन, शिवकुमार और भव्यसेन के भावपूर्ण कथानकों का उल्लेख मिलता है। बाहुबलि अपरिग्रही होकर भी मानकषाय के कारण कुछ वर्षों तक कुलुषित चित्त बने रहें । मधुपिग नाम के मुनिराज निःसंग होकर भी निदान के कारण द्रव्य-लिंगी बने रहे । इसी निदान के कारण वशिष्ठ मुनि को दुर्गति का दुःख सहन करना पड़ा। बाहु' मुनि नं क्रोधावेश में प्राकर दण्डक राजा के नगर को भस्म किया था. फलतः उन्हें रोख नरक में जाना पड़ा । द्वीपायन द्वारिका को भस्म करने के कारण अनन्त संसारी बने । भाव श्रमण शिवकुमार युवतियों से वेष्टित रहने पर भी विशुद्धचित्त, आसन्न भव्य बने रहे । भव्यसेन मुनिराज ग्यारह अंग और चौदह पूर्वो के पाठी होने
१-ज्ञातधमकथायां पाख्यानोपाख्यानां बहप्रकाराणां कथनं । संसार
यस्तेऽन्तकृतः नेमिमतगसोमिलरामपुत्रसुदर्शनयमबाल्मीकवलीकनिष्कम्बलपालाम्बष्टपुत्रा इत्येते दशवर्धमान तीर्थ कर स्तीर्थे । एवमृषभादीनां त्रयोविंशतेस्तोर्थेष्वन्यन्ये च दश दशानगारा दश दश दारुणानुपसर्गान्निजित्य कृत्स्नकर्मक्षयादन्तकृत : दश अस्यां वर्ण्यन्त इति अन्तःकृद्दशा ।--ऋषिदासवान्य-सुनक्षत्र-कात्तिक-नन्द-नन्दन-शालिभद्र- अभय- वारिषण- चिलातपूत्रा इत्येते दश वर्धमानस्तीर्थ-करतीर्थे ।
तत्वा ० रा० अ० १, सू० २०, वा० १२, पृ० ५१ । २-कौत्कल काणोविद्धि-कौशिक-हरिस्मश्रु-मांछपिक-रोमश, हारीत-मुण्डाश्वलायनादीनां--व्यासलापुत्रोपन्यवन्द्रत्ताय स्थूणादीनां ।
---तत्त्वा० रा. वा० अ० १, सूत्र २०, वा० १२, पृ० ५१ । ३-भाव प्राभृतम्, गा० ४४ । ४-भाव-प्रा० गा०,४५। ५-भाव प्रा० गा०, ४६ । ६-वही, ४६ । ७-वही,५० । ८-भाव प्राभृतम्, गा० ५१ । ६-वही, ५२ ।
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